________________
वज्जालग्ग
२५५ *७४१. (तुम) पलाश पुष्प (किंशुक) को देख कर रक्तवर्ण वाली शाखा (पुष्पों के कारण पलाश की शाखायें लाल हो जाती हैं) के द्वारा कैसे ठग लिये गये ? अथवा तुम्हारा दोष नहीं है, पलाशों (वृक्षों और राक्षसों) ने किसे नहीं छला ? ॥ ३ ॥
७४२. कृपण प्रचुर वैभव से पूर्ण होता है तब भी याचक कुछ नहीं पाते । बताओ, पलाश के फलने पर भी किसके मन में अभिलाषा उत्पन्न होती है (कौन उसके फलों की इच्छा करता है) ॥ ४ ॥
७४३. पलाश ! एकान्त कुंज में फुले हो, फले हो, यह सच है। यदि तुम्हारे फल किंचित् आस्वाद्य (खाने योग्य) होते, तो क्या तुम्हारा मूल्य होता ? (अर्थात् अमूल्य हो जाते) ।। ५ ।।
८८-वडवानलवज्जा (वडवानल-पद्धति) ७४४. अरे, समुद्र को सुखाने का विचार करने वाले वडवानल ! जब तक समुद्र नहीं जानता, तब तक रह लो । जब वह सचमुच जान जायगा तब न तुम्हीं रहोगे और न संसार ही रहेगा ॥ १॥
७४५. अग्नि के प्रसार को शान्त कर देने वाला समुद्र जिसका ईंधन है, उस वडवानल जैसे-(व्यक्ति) से श्रेष्ठ देवताओं की क्या स्प र्धा ? ॥ २॥
८९-रयणायरवज्जा (रत्नाकर-पद्धति) ७४६. यद्यपि गुणों को न जानने वाले रत्नाकर (समुद्र) ने रत्न को त्याग दिया, फिर भी वह मरकत-खण्ड (मरकत मणि का टुकड़ा) जहाँ गया, वहीं अमूल्य बन गया ॥ १ ॥ ___* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org