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गेयत्व - सभी गुणों से मंडित गाथा भी चित्त में खेद उत्पन्न करती है (९,१०) । गाथाओं का ममं (ध्वनितत्त्व) सहृदय संवेद्य है ( ११ ) । वही रचना कामिनी के समान आनन्द प्रदान करती है जो सुन्दर छन्दों एवं सुललित शब्द योजना के साथ-साथ अलंकार और रस से युक्त हो ( १२ ) । सत्काव्य दोषहीन, ललितपद विन्यासयुक्त, स्फुट ( प्रसाद गुणयुक्त) और मधुर होता है । (२४) १
काव्य का पाठ भले ही सब लोग कर लें परन्तु उसका परमार्थ (ध्वनि) केवल विदग्ध जन जान पाते हैं२ (१४) । काव्य का सौन्दर्य उस समय बिल्कुल चौपट हो जाता है जब उसे गवार लोग सीखने लगते हैं । काव्य का उद्गम हृदय में होता है परन्तु उसका उत्प्रेरक चिन्तन है (७, ८, १९ ) । जो सबकी प्रशंसा पाने में समर्थ हो वही सत्काव्य है । जिसे सुनकर रोमांच न हो जाय और लोग सिर न हिला दें वह काव्य व्यर्थ है । काव्य की आलोचना वस्तुतः वही कर सकता है जो स्वयं अनुपयुक्त पदों को हटाकर उनके स्थान पर उपयुक्त पद रखने में समर्थ हो । काव्य पाठक के निम्नलिखित दोष गिनाये गये हैं
विराम के स्थान पर न रूकना, रसहीन होना, अनुनासिक उच्चारण, त्वरित पाठ, मुँह ऐंठना या देना (२७) |
देशकाल की उपेक्षा करना, बिगाड़ना और राग तोड़
प्राकृत काव्यों के सम्बन्ध में बताया गया है कि वे मधुर वर्णों और छन्दों से विभूषित, श्रृंगार बहुल तथा देशी शब्दों से युक्त होते हैं । स्फुटता ( प्रसादत्व )
१. ये विचार काव्य के निम्नलिखित लक्षणों के अधिक निकट हैंनिर्दोषा लक्षणवती सरीतिर्गुण भूषणा ।
सालंकारसानेकवृत्तिर्वाक्काव्यनामभाक् || चन्द्रालोक
साधुशब्दार्थ सन्दर्भ गुणलङ्कार भूषितम्
स्फुटतिरसोपेतं काव्यं कुर्वीत प्रीतये ॥ - वाग्भटालङ्कार
निर्दोषं गुणवत्काव्यमलङ्कारैरत्नङ्कृतम् ।
सान्वितं कविः कुर्वन् कीर्ति प्रीति च विन्दति ॥ - सरस्वती काण्ठाभरण
२.
वेद्यते स तु काव्यार्थ 'तत्त्वज्ञैरेव केवलम् । ध्वन्यालोक
३. यहाँ चिन्तन में बुद्धि और कल्पना- -दोनों का समावेश समझना चाहिए ।
हृदय रागात्मक तत्त्व का बोधक है । इस प्रकार काव्य के तीन तत्त्व यहाँ प्रतिपादित है - बुद्धि-तत्त्व, कल्पना-तत्व और रागात्मक तत्त्व |
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