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________________ वज्जालग्ग २५३ *७३५. यद्यपि इस लोक में भूमि (मिट्टी और पद विशेष) के गुण (प्रभाव) से वट वृक्ष ऊँचा हो गया (पक्ष में, महान् हो गया), फिर भी फलों की ऋद्धि (फलों की वृद्धि और लाभ की अधिकता) बीज (नन्हें से बीज और पिता का वीर्य) के अनुसार ही होती है ।। ३ ।। ८६-तालवज्जा (ताल-पद्धति) ७३६. हे ताल वृक्ष ! आधे आकाश-मार्ग को अवरुद्ध कर लेने वाली तुम्हारी ऊँचाई से क्या ? यदि भूख और गर्मी से तपे बटोही भी तुम्हें ग्रहण नहीं करते ॥ १ ॥ ७३७. अरे ताल ! तुम छाया-हीन हो, किसी को आश्रय नहीं देते हो, परन्तु अपना फल बहुत दूर से दिखाते हो। तुम्हारी जो कुछ ऊँचाई भी है, वह दोषों के बराबर है (अथवा तुम्हारी ऊँचाई जितनी अधिक है, ठीक उतने ही अधिक तुम्हारे दोष भी अर्थात् ऊँचाई की उपमा दोषों से दी जा सकती है) ॥ २॥ ७३८. जिसने स्वयं सैकड़ों बार पानी देकर अपनी सेवा से तालवृक्ष बड़ा किया, उसी के लिए जो नहीं फला, वह अन्य के लिए क्या फलेगा?॥३॥ (अनुश्रुति के अनुसार तालवृक्ष बहुत दिनों में फल देता है, तब तक प्रायः लगाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है) ८७-पलासवज्जा (पलाश-पद्वति) *७३९. हे पलाश ! जब तुम मुकुलित हो रहे थे, तभी तुम्हारे पत्ते अपने गुणों द्वारा छोड़ दिये गये (अर्थात् पतझड़ से उत्पन्न होने वाली विवर्णता के कारण गणहीन हो गये), जिससे वसन्त के समय में तुम ने अपना मुँह काला कर लिया है (पलाश मुकुल काले होते हैं) ॥ १॥ ७४०. फलों का समूह तो दूर रहे, फूलते समय ही मुँह काला हो गया-यह समझ कर पक्षियों ने झट पलाश को छोड़ दिया (अपने पत्तों ने पलाश को छोड़ दिया अथवा पक्षी (सपत्र) रूपी सत्पात्रों ने छोड़ दिया अथवा सत्पात्रों के समान स्वपत्रों ने छोड़ दिया) ।। २ ।। * विस्तृत विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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