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________________ २४९ ७२३. सूर्य को पृथ्वी के निकट गया हुआ देख कर विरह-भीत चक्रवाक ने मुँह में (चोंच में) ली हुई मृणाली को गिराया नहीं । निकलते हुए प्राणों को रोकने के लिए मानों कण्ठ में अर्गला' लगा दी ॥ २ ॥ ७२४. चक्रवाक ने प्रिया के वियोग में पद्म-वन को अग्नि, नलिनी को चिता, अपने को मृतक और सरोवर को श्मशान के समान देखा || ३ || वज्जालग्ग ७२५ . वियोगी चक्रवाक जल में प्रतिबिम्बित अपनी परछाईं देखने की आशा से आश्वस्त हो जाता, परन्तु तरंगें उसे भी मिटा देती हैं । विधाता की निपुणता देखो ! ॥ ४ ॥ ७२६. चक्रवाकों को संगम की आशा रहती है, अतः बैठे रहते हैं एवं सुख (प्रतीक्षा - जन्य सुख) से रातें बिता देते हैं । क्या उन्हें दिनों में सन्ध्या तक बिछुड़ने का भय नहीं रहता ? वे कैसे बीतते होंगे ? ॥ ५ ॥ ७२७. लोग असत्य कहते हैं कि प्रेम धन के लोभ से होता है । शैवाल -जीवी चक्रवाकों के पास धन कहाँ है ? ॥ ६ ॥ ८४ - चंदणवज्जा ( चन्दन - पद्धति) ७२८. शुष्क हो जाने और घिस डाले जाने पर भी चन्दन कुछ इस प्रकार महमहा उठा कि जिससे फूलों की सरस -माला भी उसकी सुगन्ध से लजा गई ।। १ ॥ १. मित्रे क्वापि गते सरोरुहवने बद्धानने ताम्यति क्रन्दत्सु भ्रमरेषु वीक्ष्य दयितासन्नं पुरः सारसम् । चक्रान वियोगिना बिसलता नास्वादिता नोज्झिता कण्ठे केवलमर्गलेव निहिता जीवस्य निर्गच्छतः ॥ - काव्य प्रकाश, ८ रवि-अत्थमणि समाउलेण कंठि विइण्णु न छिण्णु । चक्कें खंडु मुणालिअहे नउ जोवग्गलु दिण्णु ॥ Jain Education International - हेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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