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वज्जालग्ग
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७०१. हे मृगाक्षि ! उसके आने से क्या अथवा उसके चले जाने से हो क्या ? जिसके लिये नगर में घर-घर अधीरता न हो ।। ४ ।।
७९-पुरिणिदा-वज्जा (पुरुष-निन्दा-पद्धति) ७०२. जैसे एक ही बीज से मूल और अंकुर, दोनों उत्पन्न होते हैं, मूल नीचे जाता है और अंकुर ऊपर को, वैसे ही संसार में दो पुरुष एक ही कुल में जन्म लेते हैं, परन्तु एक अधोगामी होता है और दूसरा उन्नति करता है ॥ १ ॥
७०३. अपने कर्म से ही मनुष्य उच्च और निम्न स्थान प्राप्त करता है। मन्दिर और कूप बनाने वाले क्रमशः ऊपर और नोचे मुँह करके चलते हैं ॥ २॥
७०४. एक ही कुल, एक ही गह और एक ही कोख से उत्पन्न होने पर भी एक तो सैकड़ों मनुष्यों का स्वामी बनता है और अन्य एक व्यक्ति का भी भरण-पोषण करने में असमर्थ रहता है ।। ३ ॥
७०५. जिन्होंने अपने को सजनों के द्वारा श्लाघ्य कर्म में नहीं लगाया, उन्होंने कुछ नहीं किया और समर्थ होकर भी जिन्होंने परोपकार नहीं किया, उनसे भी कुछ न हो पाया ।। ४ ॥
८०-कमलवज्जा (कमल-पद्धति) ७०६. सखि ! जिन्होंने कंटकों (काँटों और दुर्जनों) को नीचे रखा (तिरस्कृत किया), कोश (कली और भण्डार) को प्रकट किया और जो मित्र (सूर्य और सुहृद्) के सम्मुख रहे, उन गुणवान् (गुणयुक्त और तन्तुयुक्त) कमलों में लक्ष्मी क्यों न बसे ।। १ ।।
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