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________________ वज्जालग्ग २३९ *६९५. तो निर्गुण (गुण-हीन) हो श्रेष्ठ हैं, जो प्रभु से नई उपलब्धि होने पर सन्तुष्ट हो जाते हैं। गुणीजन-गुणों के अनुरूप फल (पारितोषिक आदि लाभ) न पाते हुये क्लेश उठाते रहते हैं ।। ३ ।। ६९६. हे निर्गुण ! मेरे गुणों के बदले अपनी निर्गुणता मुझे दे दो। गुणों से क्या होगा ? कलिकाल में उनसे स्वामी वशीभूत (गृहीत) नहीं होते हैं ॥ ४॥ ६९७. वसुधा सर्वत्र है (विस्तृत है), राजा भी सर्वत्र हैं और गुण भी सर्वत्र पूज्य हैं, तो गुणीजन धनियों का अनादर क्यों सहते ७८-गुणसलाहावज्जा (गुणश्लाघा-पद्धति) ६९८. जिसके गुणों की प्रशंसा गोष्ठियों में विद्वान् और रण के मोर्चे पर सुभट नहीं करते, अपनी जननी का यौवन नष्ट करने वाले उस कुपुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ ? ।। १ ।। *६९९. श्लोक का एक चरण भी पूर्ण करने में असमर्थ रहने वाले उस पुरुष के उत्पन्न होने से क्या लाभ है, जिसने सरिता के समान जगत् के विभिन्न भागों को यश से भर नहीं दिया ॥ २ ॥ ७००. देश, ग्राम, नगर, राजपथ, तिराहों या चौराहों पर जिसकी कीर्ति नहीं फैलती, धिक्कार है, उसके जन्म लेने से क्या लाभ है ? ॥ ३ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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