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________________ ( viii ) वज्जाओं को उक्त तीनों वर्गों में पृथक्-पृथक् बांटने का प्रयास किया है । मेरे विचार से यह वर्गीकरण न आवश्यक है और न उपयुक्त । धर्म, अर्थ और काम-ये तीनों पुरुषार्थ एक दूसरे के आश्रित एवं पूरक हैं, अतः प्रत्येक से सम्बन्धित गाथाओं को बिल्कुल पृथक् कर लेना सरल कार्य नहीं है । धर्म की चर्चा होने पर अर्थ अछूता नहीं रह सकता है, अर्थ का प्रसंग उठने पर धर्म स्वयं चचित हो जाता है और काम का प्रश्न उपस्थित होने पर धर्म और अर्थ सहज भाव से सामने आ जाते हैं। तीनों का प्राधान्य और गुणोभाव संभव है, पार्थक्य नहीं। विद्वानों ने धर्म को अर्थ और काम का हेतु बताया है-धर्मादर्थश्च कामश्च । प्रो० पटवर्धन के वर्गीकरण से सात वज्जायें धर्म से, सैंतालीस वज्जायें अर्थ से और पेंतीस वज्जायें काम से सम्बन्धित हैं । वज्जालग्ग की विभिन्न वज्जाओं को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर उक्त वर्गीकरण की त्रुटियां स्पष्टरूप से झलकने लगती हैं। जोइसिय और विज्ज वज्जाओं में ज्योतिष और वैद्य क के पक्ष में जो अर्थ निकलते हैं क्या उनका सम्बन्ध अर्थ से नहीं है ? सुहड वज्जा में जो नैतिकता, कर्तव्यपरायणता और आत्मोत्सर्ग का वर्णन करने वाली गाथायें हैं, क्या वे धर्म से अछूती हैं ? दीण वज्जा में जहाँ प्रार्थनाभंगकारी पुत्र को गर्भ में भी न धारण करने के लिए माता से निवेदन किया गया है वहीं क्या प्रकारान्तर से दानशीलता को सुव्यक्त प्रेरणा नहीं मिलती है ? नीइ-वज्जा की अधिकतर गाथायें क्या धर्म का निरूपण नहीं करतीं? जहाँ दुष्टों के निकट न जाने का उपदेश है वह दुज्जणवज्जा क्या केवल अर्थ को सीमित परिधि में बांधी जा सकती है ? क्या दारिद्द वज्जा की वे मार्मिक गाथायें जो दरिद्रों के प्रति बरबस करुणा एवं सहानुभूति के भाव जगा देती हैं, हमें अपना कर्तव्य सोचने के लिए बाध्य नहीं कर देती ? सेवय-वज्जा की दसवीं गाथा क्या हमें सन्तोष की शिक्षा नही देती ? यदि धम्मिय वज्जा का श्रृंगारिक अर्थ काम से सम्बद्ध है तो क्या दूसरा अर्थ उपासना से नहीं ? जहाँ पंडितजन को वेश्यालय में न जाने का उपदेश दिया गया है और जहाँ अर्थ पिशाचिनी वेश्याओं की प्रवंचनाओं को खुले शब्दों में भर्त्सना की गई है, वह वेस्सा-वज्जा क्या कोरे काम तत्त्व का ही प्रतिपादन करती है, अर्थ और धर्म का नहीं ? कृपण की निंदा क्या हमें दान को प्रेरणा नहीं देती ? हियाली वज्जा की सभी गाथायें क्या काम का ही निरूपण करतो हैं ? कुछ गाथायें (पाँचवीं और चौदहवीं) क्या व्यंग्यपूर्ण शैली में चरित्र को शिक्षा नहीं देतीं। कर्मफल की अपरिहार्यता का प्रतिपादन करने वाली पुन्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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