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वज्जालग्ग
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६०१. भले ही मण्डली विघटित हो जाय, भले ही रासलीला भंग हो जाय, परन्तु कृष्ण ! तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में है, छोडूंगी नहीं, क्योंकि वह मुझे बहुत मनौतियों से प्राप्त हुआ है ।। १२ ।।
६०२. सुन्दरि ! कृष्ण देवता हैं, और देवता भी पत्थर से निर्मित होते हैं। पत्थर आँसुओं से नहीं पसीजते (कोमल नहीं होते), तब तुम क्यों रो रही हो ? ॥ १३ ॥
६०३. मथुरा का राज्य पाकर भी कृष्ण गोपियों का वह प्रगाढ प्रेम नहीं छोड़ते हैं । सत्पुरुष विश्वास से उत्पन्न प्रेम नहीं तोड़ते हैं ॥ १४ ॥
*६०४. केशव ! लोग सत्य ही कहते हैं, उत्कृष्ट धन को न जानने वाले तुम नन्द के चरवाहे (गोपाल) एवं क्षीरजीवी अहीर हो—इसमें सन्देह नहीं है ।। १५ ॥
शृंगार पक्ष-केशव ! लोग सत्य ही कहते हैं, अन्तिम प्रयोजन (भोग) को न जाननेवाले तुम नन्द के चरवाहे एवं स्तन से जीवित रहनेवाले (स्तन मर्दन से ही सन्तुष्ट हो जानेवाले) अहीर (मूर्ख) हो-इसमें सन्देह नहीं है।
६०५. कृष्ण ! यमुना में स्नान के समय तुमने मेरा कटिवस्त्र पहन लिया था-क्या वह याद है ? इस समय मथुरा के राज्य में तो मिलने पर बात भी करने में सन्देह है ।। १६ ।।
__६३-रुद्र-वज्जा (रुद्र-पद्धति) ६०६. रति-कलह में कुपित गौरी के पदाघात से जटाजूट छूट जाने पर जिनका हाथ गिरते हुए चन्द्रमा को सँभालने (रोकने) के लिये चंचल हो उठा था, उन शिव को प्रणाम करो ॥१॥
*विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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