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________________ २०५ ५९५. हे कृष्ण ! आज भी विशाखा (गोपी विशेष ) उस कंचुक को जीर्ण हो जाने पर भी नहीं छोड़ रही है, जो केशी का वध करते समय रुधिरार्द्र कूर्पर (केहुँनी) को पोंछने से उत्पन्न धब्बों के कारण बहुमूल्य बन गया है ॥ ६ ॥ वज्जालग्ग ५९६. जिन के अंग (राधा के) से श्वेत हो चुके थे, उन श्वेतांग कृष्ण आलिंगन कर लिया ॥ ७ ॥ ५९७. मथुरापुरी के मध्य में मधुर और श्वेत मट्ठा बेचती हुई कोई धवलाक्षी कृष्ण - कृष्ण' (काला - काला) कह पड़ी ॥ ८ ॥ कपोलों से छलकते ज्योत्स्ना - प्रवाह का, रतिरस में लीन राधा ने *५९८. केशव ! जिसने गरुड के रहने पर भी तुम को (स्थान-स्थान पर) घुमा दिया रे ( पक्षान्तर में, जिस के कारण तुम्हें चक्कर आ गया), वह विशाखा (गोपी विशेष ) सचमुच ही अधिक विष वाली तृष्णावती भुजंगी (सर्पिणी और स्वैरिणी) है ॥ ९ ॥ ५९९. केशव ! जैसा लोग तुम्हें कहते हैं, सचमुच (तुम) पुराण- पुरुष ( ईश्वर और वृद्ध पुरुष) हो, क्योंकि सदा हाथ में लगी हुई विशाखा ( एक गोपी और लाठी या बैसाखी) के साथ चलते हो ॥ १० ॥ *६००. कृष्ण तुम दुर्बल क्यों हो ? अरे मूढ ! तुमने धान्यसंग्रह क्यों नहीं किया ? जो अपरिपक्क (कच्चा) भोजन करता है, उसके मन को कैसे सन्तोष मिल सकता है ? ॥ ११ ॥ शृङ्गार पक्ष – कृष्ण ! तुम आकर्षित क्यों हो गये ? अरे मूढ ! तुमने सुन्दर रमणी को क्यों नहीं ग्रहण कर लिया ? जो विशाखा के साथ संभोग करता है, उसे सन्तोष कैसे हो सकता है ? १. २. कृष्ण का अर्थ = कालारंग और श्रीकृष्ण यहाँ दोनों ग्राह्य हैं । मूल में घुम्माविअ पाठ है । अभिप्राय यह है कि जिसने अपने प्रेम में तुम्हें इधर-उधर घूमने के लिये विवश कर दिया है । * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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