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________________ वज्जालग्ग २०३ ५८९. कुदाल का भारी आघात करने पर पृथ्वी जल-क्षरण करने लगती है-यह कोई आश्चर्य नहीं है। खनक वह है, जिसके दर्शन से घोड़ी पानी देने लगती है ।। ४ ।। ६२--कण्हवज्जा (कृष्ण-पद्धति) ५९०. राधे ! क्या कुशल है ? कंस ! क्या तुम सुखी हो ? कंस कहाँ है ? राधा कहाँ है ? इस प्रकार गोप-बालिका से संवाद होने पर लजा कर हँसने वाले कृष्ण को नमस्कार करो ।। १ ।। (गोत्र-स्खलन से कुपित किसी गोपी और कृष्ण का संवाद है). ५९१. गोष्ठ में सबको आँखों के सामने जिसका आलिंगन चाहने वाली मदनानलतप्त गोपियाँ अरिष्टासुर की प्रशंसा करती हैं, उस कृष्ण को प्रणाम करो ॥ २॥ ५९२. नवयुवक कृष्ण की जय हो (या वे विजयी हों) । उन्मत्त यौवना राधा को जय हो । तरंग बहुला यमुना को जय हो। वे दिन कभी थे, अब नहीं हैं ।। ३ ॥ ५९३. कृष्ण त्रिभुवन वन्दित हो कर भी गोपी के चरणों पर गिर पड़ते हैं । सत्य है, प्रेमान्धों को दोष नहीं दिखाई देते ॥ ४ ॥ ५९४. पुत्रि ! कृष्ण श्याम-वर्ण हैं। रात अँन्धेरी है (चन्द्र-वर्जित)। यमुना के तट पर घने बेंत हैं । यदि भ्रमरी बन जाओ, तो मुँह की महक से उन्हें पा जाओगी ।। ५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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