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________________ वज्जालग्ग १९७ ५७१. जो सैकड़ों कपटों से पूर्ण और जिनका हृदय वास्तविक प्रेम से शून्य होता है, उन वेश्याओं को धन न रहने पर साक्षात् कामदेव भी नहीं रुचता है ॥ १२ ॥ ___ ५७२. जो अर्थ के लिये टेढ़े-मेढ़े और कुरुचिपूर्ण (घृणित) मुखों को भी चूमतो रहती हैं, तथा जिन्हें अपनी आत्मा भी प्रिय नहीं है, उन वेश्याओं को दूसरा कौन प्रिय होगा ? ॥ १३ ॥ . ५७३. जैसे सून्दर नाप वाली, अच्छे सूतों से यक्त, (रक्त-पीतादि) बहु-रूपों वाली तथा कोमल साड़ी शिशिर में पुण्य के बिना नहीं मिलती, वैसे ही सुन्दर गठन वालो, मदुभाषिणी, नाना रूपों (वेशों) को धारण करने वाली कोमलांगो वेश्या भी शिशिर में पुण्य के बिना नहीं प्राप्त होती है ।। १४ ॥ ५७४. कुटिलता, वक्रता, वञ्चना और असत्य-ये अन्य लोगों के दोष हैं, परन्तु वेश्याओं के आभूषण हैं ।। १५ ।। । ५७५. जैसे चन्दनलता सरस (रसयुक्त) होती है और रगड़ने पर महँकती है, सुगन्ध से पूर्ण रहती है और बहुत से सर्पो (भुजंगों) से वेष्टित रहती है, वैसे ही वश्या भी प्रेम (रस) से युक्त होती है, संभोग के समय मर्दन करने पर सुख देती है, (गन्ध-द्रव्य लेप के कारण) सुगन्ध से पूर्ण रहती है और बहुत से विटों (वेश्या प्रेमियों = भुजंगों) के द्वारा उपदित होती है ।। १६ ।। *५७६. स्वजनों (प्रेमियों) की कामवासना का उपशमन करने वाली, वेश्या की छाती मुझे सुख देगी-यह मत समझो। तुम अपने पतन से जानोगे कि वह शैवाल-लिप्त (काई-लगे हुये) पत्थर के समान है ।। १७ ।। * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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