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________________ वज्जालग्ग १९१ ५५३. बेटी ! 'जड़ी' 'जड़ी' खोजती हुई घर-घर मत भटको। प्रिय की इच्छा के अनुकूल व्यवहार करना-यही वशीकरण है ।। २ ।। ५५४. बेटी ! भूषण, प्रसाधन और आडम्बर में अपने को मत डालो। जिनसे लोग अनुरक्त होते हैं, वे अलंकरण दूसरे ही हैं ॥ ३ ॥ *५५५. विशाललोचने ! अन्य रमणी में आसक्त होने पर भी प्रिय का अधिकतर आदर करना। (क्योंकि) लोग ज्ञान से भी झुक जाते हैं (विनम्र हो जाते हैं) और चारित्रिक गुणों से भी ।। ४ ॥ ५५६. सत्यता (यथार्थता) के बिना परमार्थ को जानने वाला व्यक्ति पकड़ में नहीं आता। बूढ़े विलाव को कांजी से कौन धोखे में डाल सकता है ? ॥ ५ ॥ ५५७. जिसके बिना नहीं रहा जा सकता है, अपराध करने पर भी उसका अनुनय किया ही जाता है। नगर जल कर भस्म हो जाने पर भी अग्नि से किसे प्रेम नहीं है ? ।। ६ ॥ ५५८. तुम्हारी कृपा से सैकड़ों चाटुकारितायें जानती हूँ, केवल प्रेमहीन के प्रति योनि का प्रक्षरण करना नहीं जानती हूँ (प्रणयशून्य व्यक्ति के प्रति द्रवीभूत होना मुझे नहीं आता है) ॥ ७ ॥ जिसके बिना जीवन दूभर है, नहीं संभव है जग में रह पाना । यदि लाख करे अपराध कठोर, उसे पड़ता है परन्तु मनाना। जला डालती गाँव को जो छिन में, नहीं जानती जो कभी नेह निभाना। किसको उस आग से प्यार नहीं, किसको पड़ता न उसे अपनाना ॥ ---यह भावानुवाद 'गाहासत्तसई के पाठ पर अवलम्बित है । विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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