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________________ वज्जालग्ग १८९ ५४७. पुत्रि ! छेक दुराराध्य हैं, वे देते नहीं, प्रेम बहुत दिखाते हैं, अनुरक्त नहीं होते, मन ले लेते हैं, पर देते नहीं ।। ५ ॥ *५४८. मृगलोचने ! छेक जन (चतुर पुरुष) किसी पर अनुरक्त नहीं होते। जैसे रात्रि को न देखने वाली रवि-किरणें भी (मूल में रविकर शब्द पुंल्लिग है ) रक्तवर्ण हो जाती हैं, वैसे ही वे (छेक) कोई दोष देखे बिना विरक्त हो जाते हैं ॥ ६ ॥ ५४९. प्रेम करवाते हैं, करते नहीं, हृदय हर लेते हैं, अपना हृदय देते नहीं । विदग्धजन भुजंग के समान हैं, ईंस कर मुँह फेर लेते हैं ।। ७ ॥ *५५०. प्रेम करवाते हैं, करते नहीं, दुःख देते हैं, दुःखी होते नहीं। विदग्धजन उपदेश (या शिक्षा) नहीं सुनते, अतः इस समय जगत् में दुराराध्य हैं ।। ८ ॥ ५५१. पुत्रि ! सभी विदग्ध स्फटिक मणि के समान होते हैं। वे लोगों के रक्त होने पर रक्त, कृष्ण होने पर कृष्ण और उज्ज्वल होने पर उज्ज्व ल बन जाते हैं ॥९॥ ५८-कुट्टिणी-सिक्खा-वज्जा (कुट्टिनीशिक्षा-पद्धति) ५५२. इन अनुपम सौभाग्य प्रदान करने वाली, हावों और भावों से मसृण (स्निग्ध) किंचित् शुभ्र-कटाक्ष-पूर्ण दृष्टियों को पुनः सीखो ॥ १ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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