________________
वज्जालग्ग
१७७
५१४. वैद्य ! यह कृशांगी श्यामा स्वयं निचोड़ नहीं सकती है, अतः क्यों सोच-विचार में पड़े हो ? इसे अंगुली के अग्र-भाग से बिजौरे नीबू का अवलेह (चटनी) दो। (यह इतनी दुर्बल हो गई है कि रतिक्रिया में अंगों का मर्दन नहीं सह सकती। अतः मध्यमांगुलि से इसके भग का अवलेखन करो)
५१५. अरे वैद्य ! यह पुक्कारय नामक जड़ी और तुम्हारी (दुःख के कारण उत्पन्न) लम्बी साँसों से ऊब चुकी है (या जिसके कारण साँसें लम्बी हो गई हैं, उस पुक्कारय से ऊब चुकी है)। इसे रोकिये मत, इच्छा भर अन्न खाने दीजिये। शृंगार पक्ष-तुम्हारे लिंग और तुम्हारी लम्बी साँसों (हाँफने से) से ऊब चुकी है। इसे अन्य पुरुष का उपभोग करने दीजिये।
*५१६. दुष्ट गृहपति कुमार ने अपूर्व वैद्यक शास्त्र बताया है, जिससे वह झाड़-फूंक का भी प्रयोग करता है और उपदेश-दान का भी ।। ६ ।। शृङ्गार पक्ष-दुष्ट गृहपति कुमार ने अपूर्व विद्या बताई है, जिससे वह पचास (या पाँच) स्त्रियों के लिए भी पुरुषेन्द्रिय का प्रयोग करता है ।
५१७. वैद्य ! तुम्हारे आते ही मैं ज्वर-मुक्त हो गई हूँ। क्या जानते नहीं ? तो देखो, इस समय मेरे अंग में पसोना उत्पन्न हो गया है ।। ७॥
(प्रस्वेद का कारण द्रवी भाव या सात्त्विक-भावोद्रेक)
*५१८. वैद्य ! अन्य बार मेरा ज्वर तुम्हारे हाथों की भभूत से मारा गया था (नष्ट हो गया था)। यदि उसे नहीं देना चाहते, तो क्या मट्ठा भी न होगा ? ॥ ८ ॥ शृङ्गार पक्ष-अन्य बार मेरा विरह-ताप सौ संभोगों से दूर हो गया था। यदि उतना नहीं देना चाहते तो क्या छियासी संभोग भी नहीं दोगे?
५१९. जिसके अंग ज्वर से मलिन हो चुके थे, उस कल और मधुर भाषण करने वाली बाला को देखते हुए वैद्य को अच्छी तरह अभ्यस्त सुश्रुतसंहिता भी भूल गई ॥९॥
* विशेष विवेचन परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
१२
Jain Education International -
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org