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४८४.
जिसने असतियों को कलंकित करने वाले चन्द्रमा को निगल कर छोड़ दिया, उस राहु का सिर विष्णु के चक्र से एक बार कट जाने पर भी फिर से काटा जाय ॥ १३ ॥
वज्जालग्ग
४८५.
क्या भूमण्डल में भी भ्रमण कर के वह औषधि किसी प्रकार मिलेगी, जिससे पूर्णिमा - सहित चन्द्रमा को पचाया जा सके ।। १४॥
४८६. क्या विधाता ने स्वर्ग में एक भी व्यभिचारिणी नहीं बनायी, जिसने अपने निकटवर्ती चन्द्रमा को नीले रंग में नहीं डुबो दिया ? ।। १५ ।।
४८७. हे सिद्ध ! स्मरण करके श्री पर्वत से वह औषधि ले आओ, जिससे अन्धकार का समूह फैलता है और चन्द्रमा की चाँदनी नष्ट हो जाती है ? ॥ १६ ॥
४८८. हे पुंश्चलि (कुलटे) ! जो हमारे वैरी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करता है, उस शिव को स्वप्न में भी एक पत्तो मत चढ़ाना ॥ १७ ॥
४८९. अरे व्यभिचारिणियों के अप्रिय पूर्णचन्द्र ! गर्व मत करो। तुम कभी टूटे कंकण के टुकड़े के समान दिखाई दोगे ॥ १८ ॥
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