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________________ वज्जालग्ग ४७८. साठ से सुभगा होती है, सौ से रंभा पद पाती है और हजार जारों ( उपपतियों ) के पूर्ण होने पर इन्द्र अपना आधा आसन दे देता है ॥ ७॥ ४७९. यदि यहाँ मरने पर हमारे जीवन के पुण्यों का सचमुच कुछ फल है तो वह उन्हीं निकुंजों में उसके साथ उसो प्रकार क्रीड़ा करता रहे ।। ८ ॥ ४८०. मनुष्य जो करता है, उसे पाता है—यह सुनकर व्यभिचारिणी महिला, को इस समय उसके साथ इच्छा भर रमण करना चाहिये-इस विचार से निकल पड़ी ।। ९ ।। ४८१. व्यभिचारिणियों ने सती के कानों के पास लग कर धीरे से कहा-अरी पापिन ! पर-पुरुष का रस न जानती हुई नरक जा रही हो ।॥ १० ॥ ४८२. जहाँ न कुबड़े पेड़ हैं, न नदी है, न वन है, न उजड़ा घर है, उस निश्चिन्त स्थान से रहित गाँव में बताओ, कैसे रहा जाय ? ॥११॥ ४८३. अरे राहु ! पूर्णिमा के चन्द्र को निगल जाओ। उस दुष्ट को छोड़ना मत। अरे दुष्ट ! जो अमृतमय है, उसे खाकर दीर्घायु हो जाओगे ।। १२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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