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________________ वज्जालग्ग ४६६. वह गृह-कार्य में गृहिणी, सुरत में वेश्या, सुजनों में कुलवधू , वृद्धावस्था में सखो, संकट में मन्त्री और सेवक के समान है ।। ४ ॥ ४६७. देखो, प्रियतम के प्रवास का निश्चय करते ही उस कुलबालिका (या कुल-पालिका) का यौवन, सौन्दर्य, शृंगार-क्रियायें (विभ्रम ) और आकर्षक चेष्टायें (विलास)-ये सभी पहले ही चले गये ॥ ५ ॥ ४६८. महिलाओं का सतीत्व कुल-परम्परा से नहीं, पुरुष की विशेषता के कारण होता है। हाल (प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन ) के स्वर्ग चले जाने पर भी गोदावरी प्रतिष्ठान नामक नगर को नहीं छोड़ रही है, जैसे कोई सती विधवा होने पर पति के स्थान को नहीं छोड़ती ॥ ६ ॥ ४६९. जो इहलोक और परलोक में विरुद्ध है, कर्णकटु है, निन्दनीय है, दोनों कुलों को दूषित करने वाला है, अरी दूतो! उसके कहने से क्या लाभ ? ॥ ७ ॥ ४७०. यदि वह गुणवान् एवं गुणानुरागी मेरे गुणों की प्रशंसा करता है, तो जब मैं पहले ही व्यभिचारिणी बन जाऊँगी, तब गुणों को क्या गिनती रह जायगी ॥ ८॥ ४७१. अयि सुन्दरि ! यदि तुम प्रतिदिन मेरे आगे उसेउत्तम पुरुष कहती हो तो सखि ! उत्तम पुरुष पर-स्त्रियों को नहीं देखते हैं ॥ ९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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