________________
४५४. जलते हो, जलो; तो टूट जाओ। जिससे फिर न करो ।। ५ ।।
वज्जालग्ग
१५५
खौलते हो, खौलो; अरे हृदय ! टूटते हो कभी अन्य से प्रेम करने वाले की कामना
४८ - सुघरिणी वज्जा ( सुगृहिणी -पद्धति)
४५५. जो सबके खा चुकने पर बचे हुए अन्न का भोजन करती है, जो सम्पूर्ण परिवार के सो जाने पर सोती है और पहले ही जग जाती है, वह गृहिणी नहीं, घर की लक्ष्मी है ॥ १ ॥
४५६. गृहिणी घर में थोड़े से भक्ष्य कणों को भी कुछ इस प्रकार बढ़ा देती थी कि वे बान्धव भी समुद्र के समान थाह नहीं पाते थे ॥ २ ॥
४५७. गर्भावस्था में 'तुम्हारी क्या इच्छा है' यह पति के पूछने पर पति को आकुलता (कष्ट) से बचाती हुई दरिद्र- गृहिणी ने केवल जल की इच्छा प्रकट की ॥ ३ ॥
४५८. प्यारे पाहुन के आने पर जिसने अपने सुहाग के कंकण बेंच दिये, उस दरिद्र घर की बहू और कुटुम्ब का पालन करने वाली (या उच्च कुल की बालिका) सुन्दरी ने उस गाँव को रुला दिया ॥ ४ ॥
४५९. जब प्रिय के आगमन का सगुन बताने वाला कौआ बलि न पाने के कारण लज्जित होकर उड़ गया, तब दरिद्र गृहिणी इतना रोई कि जितना भाईयों के मरने पर भी न रोती ॥ ५ ॥
१. नैहर की कुल बालिका एक, अभाग से गेह दरिद्र के आई । साँझ को पाहुन आ गया द्वार, करे किससे उसकी पहुनाई । होकर लाजवती निरुपाय, सुहाग का कंगन बेंचने लाई | आ गई दीनता से दुःखी गाँव में, देख उसे किसको न रुलाई |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org