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________________ वज्जालग्ग १५३ ४४८. नीवी के स्खलित हो जाने से किंचित् विह्वल तरुणियाँ जिसे स्मरण रखती हैं, वे धन्य हैं, उन्हें नमस्कार है और कामदेव को कृपा से वे ही वास्तव में जीवित हैं ।। ३ ।। ४४९. जो मत्त गजराजों के समान चलती हैं, वे पूर्णचन्द्रवदना रमणियाँ जिन्हें अनवरत स्मरण रखती हैं, वे धन्य हैं ।। ४ ॥ ४७-हिययसंवरण वज्जा (हृदयसंवरण-पद्धति) ४५०. हृदय भले ही क्षीण हो जाय, आँखें भले ही फूट जायँ और भले ही आज मृत्यु हो जाय, अरे मन ! कायाग्नि कितनी भी धधके, मान मत छोड़ना ।। १ ।। ४५१. अरे मन ! तुम्हारा साहस क्षीण हो चुका है, तुम्हें अपने गौरव की भी चिन्ता नहीं है। जहाँ जाने पर कोई गणना नहीं होती, वहाँ नेह जोड़ते हो, टूट जाओगे ।। २ ।। __ ४५२. अरे हृदय ! दुर्लभजन के संगम की बड़ी आशा से क्यों कष्ट भोगते हो? जिसके पूर्ण होने का कोई उपाय नहीं है, उस कार्य के लिये क्यों हठ करते हो ? ॥ ३ ॥ ४५३. रे हृदय ! तुम अपनी इच्छा से दौड़ रहे हो, दुर्लभजन को ढूंढ रहे हो। ऐसा लगता है जैसे आकाश में उड़ते हो, व्यर्थ हो तुम्हें कोई खा जायेगा ।। ४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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