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वज्जालग्ग
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४४२. अरे पथिक ! (तुम्हारे चले आने से) कौन सा देश आज उजड़ गया ? जहाँ इस समय जा रहे हो ऐसा कौन-सा देश आज बस गया है ? हे पन्थ के दीपक ! इसके पश्चात् फिर कहाँ दर्शन दोगे? ॥ ३ ॥
४४३. पथिक ! जिन्होंने तुम्हें देखा है और जिन्होंने नहीं देखा है-वे दोनों ही लुट चुके हैं। (क्योंकि) एक का हृदय हर लिया गया है, तो दूसरे का जन्म लेना ही व्यर्थ है ।। ४ ।।
४४४. जिसके कंठ में लिपटे वस्त्र तीव्र पवन में इधर-उधर उड़ रहे हैं, वह पथिक प्रिया के दर्शन की शीघ्रता में आधा' उड़ता हुआ सा जा रहा है ॥ ५ ॥
४४५. जो चिरकाल बीतने पर घर लौटा है, वह प्रिया के दर्शन का प्यासा पथिक आज जब गाँव के निकट पहँचा, तो उसके हृदय की धड़कन (टीकाकार के अनुसार सन्देह) ही नहीं समाप्त हो रही है ॥ ६॥
४६-धन्न-वज्जा (धन्य-पद्धति) ४४६. गुरुनितम्बों के भार से अलसायी तरुणियाँ जिसे काँपते अधरों और गद्गद् वचनों से स्मरण करती हैं, वे धन्य हैं ।। १ ।।
४४७. कठिन, उत्तुंग एवं विस्तीर्ण उरोजों से जिनके अंग भरे रहते हैं, वे सद्भाव, स्नेह और उत्कंठा से युक्त रमणियाँ जिन्हें स्मरण रखती हैं, वे धन्य हैं ॥ २॥ १. अद्धुड्डीणउ तिणि पहिउ पहि जोयउ पवहंतु ।
-सन्देशरासक
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