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४३६. हे बालक ! जो हथेली पर अपना कपाल (मस्तक) रखे रहती है, जो निश्चित रूप से क्षण भर भी चारपाई की पाटी नहीं छोड़ती है, वह बाला तुम्हारे विरह में, क्षण भर भी खट्वांग ( शस्त्र विशेष ) का त्याग न करने वाली एवं हाथ में कपाल धारण करने वाली कापालिनी बन गई है ' १५ ॥
वज्जालग्ग
४३७.
वह बाला ऐसी क्षीण हो गई है कि बन्द आँखों की पलकें खोलने में भी असमर्थ है । जब तुम घर जाओगे, तो तुम्हें भी कठिनाई से देख सकेगी ॥ १६ ॥
४३८. मैं दूती नहीं हूँ, न तुम उसे प्रिय हो । इस में मेरा क्या स्वार्थ है ? वह मर रही है । तुम्हें अपयश होगा —— इसलिये धर्म की बातें कह रही हूँ || १७ ॥
४३९. मेरे हाथों से (द्वारा) संदिष्ट तुम्हारे वचनों को बहुत बार कहने पर भी - 'मैंने नहीं सुना - - इस प्रकार कहती हुई प्रौढ़ नायिका ने सैकड़ों बार कहलाया ।। १८ ।।
४५ – पंथिय वज्जा (पथिक-पद्धति)
४४०. हृदय में प्रतिबिम्बित प्रियतमा के मुख-चन्द्र की चाँदनी का जल-प्रवाह ग्रीष्म के मध्याह्न में यात्रा करने वाले पथिक का ताप हर लेता है ॥ १ ॥
४४१. अरे पथिक ! विरहिणियों के विरहानल से तप्त जल मत पीना, इस सरोवर में प्रोषित - पतिकाओं ( त्यक्तपति स्त्रियों) ने स्नान किया है ॥ २ ॥
१. तुय समरंत समाहि मोहु विसमट्टियउ, तहिं खणि खुबइ कवालु न वाम-करट्टियउ, सिज्जासण उण मिल्हउ खण खट्टंगलय, कावालिय कावालिणि तुय विरहेण किय ॥ ——सन्देश रासक,
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