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________________ १४९ ४३६. हे बालक ! जो हथेली पर अपना कपाल (मस्तक) रखे रहती है, जो निश्चित रूप से क्षण भर भी चारपाई की पाटी नहीं छोड़ती है, वह बाला तुम्हारे विरह में, क्षण भर भी खट्वांग ( शस्त्र विशेष ) का त्याग न करने वाली एवं हाथ में कपाल धारण करने वाली कापालिनी बन गई है ' १५ ॥ वज्जालग्ग ४३७. वह बाला ऐसी क्षीण हो गई है कि बन्द आँखों की पलकें खोलने में भी असमर्थ है । जब तुम घर जाओगे, तो तुम्हें भी कठिनाई से देख सकेगी ॥ १६ ॥ ४३८. मैं दूती नहीं हूँ, न तुम उसे प्रिय हो । इस में मेरा क्या स्वार्थ है ? वह मर रही है । तुम्हें अपयश होगा —— इसलिये धर्म की बातें कह रही हूँ || १७ ॥ ४३९. मेरे हाथों से (द्वारा) संदिष्ट तुम्हारे वचनों को बहुत बार कहने पर भी - 'मैंने नहीं सुना - - इस प्रकार कहती हुई प्रौढ़ नायिका ने सैकड़ों बार कहलाया ।। १८ ।। ४५ – पंथिय वज्जा (पथिक-पद्धति) ४४०. हृदय में प्रतिबिम्बित प्रियतमा के मुख-चन्द्र की चाँदनी का जल-प्रवाह ग्रीष्म के मध्याह्न में यात्रा करने वाले पथिक का ताप हर लेता है ॥ १ ॥ ४४१. अरे पथिक ! विरहिणियों के विरहानल से तप्त जल मत पीना, इस सरोवर में प्रोषित - पतिकाओं ( त्यक्तपति स्त्रियों) ने स्नान किया है ॥ २ ॥ १. तुय समरंत समाहि मोहु विसमट्टियउ, तहिं खणि खुबइ कवालु न वाम-करट्टियउ, सिज्जासण उण मिल्हउ खण खट्टंगलय, कावालिय कावालिणि तुय विरहेण किय ॥ ——सन्देश रासक, ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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