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________________ वज्लालग्ग १४७ ४३०. बार-बार तुम्हें देखने वाली सुन्दरी की दृष्टि ने, जो नयनों के भीतर छलकते आंसुओं के भार से मन्थर हो गई थी, क्या नहीं कह दिया ? ॥ ९ ॥ ४३१. सुभग ! हाथी के चरण रखने पर उच्छलित होने वाले चंचल स्वल्प-जल के समान उस का कंपनशील हृदय तुम्हारे विरह में चारों दिशाओं में छिटक गया ॥ १० ॥ ४३२. अरे सुभग ! तुम ने जिसे अपने हाथों से दिया था उस पुष्पमाला को गन्ध-होन होने पर भो, वह ऐसे धारण कर रही है, जैसे नगर से बाहर निकाली गई गृह-देवी ।। ११ ॥ ४३३. हे सुन्दर अंगों वाले ! वह तन्वंगो तुम्हारे वियोग में इतनी क्षोण हो गई है कि प्रतिदिन ढोले-ढोले कंकणों के गिर पड़ने के भय से हाथ 'उठाये चलती है ॥ १२ ॥ ४३४. तुम्हारे विरह-ताप से संतत उस बाला के स्तनों पर प्रतिदिन (शोतोपचार में) दो जाती हुई मृणालमाला छनछनाने लगती है ।। १३ ।। ४३५. हे निर्दय ! (विरह में) जिसने मद (मदिरा) और विलेपन का परित्याग कर दिया है, केवल जल हो जिसका आहार है और जो मास में एक बार ही भोजन करती है, वह तुम्हारी प्रिया उस भीलनी के समान हो गई है, जो गजों के मद का विलेपन लगाती है, वन में ही रहती है और मांस का भोजन करतो है ॥ १४ ॥ १. वलयावलि-निवडण भएण, धण उद्धन्भुय जाइ । वल्लह-विरह-महादहहो, थाह गवेसइ नाइ ॥ -हेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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