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________________ वज्जालग्ग १३९ ४०६. जो लम्बी साँसें लेकर, काँप कर और रोमांचित हो कर नाचना जानती हैं, वे धन्य हैं । हम-जैसी प्रेमिकायें तो प्रियतम के देखने पर अपने आप को भी भूल जातो हैं ।। ४ ॥ रहे, क्या उसका वरल ने को पवित्र हत्तीय प्रियतम का स्पर्श तो हर ४०७. अमृत-रस से भी अधिक रमणीय प्रियतम का स्पर्श तो दूर रहे, क्या उसको देख लेना भी पर्याप्त नहीं है ? ॥ ५ ॥ ४०८. प्रिय सखि ! आँखों के आगे पड़ने पर जो सुख होता है, उसे कौन कहे, प्रेमी का तो नाम सुनने पर भी निर्वाण-सुख मिल जाता ४०९. प्रियतम के हाथों के स्पर्श से भी जो सुख संप्राप्ति (या सुखसंपत्ति) होती है, वह अन्य लोगों के वेगपूर्वक आलिंगन से भी कहाँ मिलती है ? ॥ ७॥ ४१०. माँ! इन दोनों दृष्ट स्वभाव वाली आँखों को क्या करूँ ? एक प्रियतम को छोड़कर लाखों लोगों को देखकर भी ये नहीं देखती हैं।॥ ८॥ ४११. जिस का गृह राजांगण के समान सदैव दूतियों से परिपूर्ण रहता है, उस सौभाग्य-भार से भ्रमणशील (अनेक नायिकाओं के यहां जाने वाले) प्रियतम का मैं क्या करूँ (क्या कर लूंगी) ॥ ९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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