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________________ १३७ *४००. उस नव नलिन कोमलांगी प्रिया का स्मरण क्यों न किया जाय जो नखों से तनिक भर छूट जाने पर अकाल में ही घना भादों उपस्थित कर देती है (या कृष्ण मेघों के बिना ही रो-रो कर भादों कर डालती है) ॥ ३ ॥ वज्जालग्ग ४०१. जो गृह-द्वार के तोरण यूथ-भ्रष्ट हरिणी के समान मार्ग रहे ? ॥ ४ ॥ (द्वार का अंग विशेष ) पर बैठी निहारती रहती है, वह कैसे याद न * ४०२ निःश्वासों से शरीर सुखा देने पर भी जो आशावती है, उसका स्मरण क्यों न किया जाय। जब तक साँसें तब तक आश्वासन दिया जाता है ।। ५॥ समाप्त नहीं हो जाती ४२ - पियाणुरायवज्जा ( प्रियानुराग-पद्धति) ४०३. मुख का रंग ही प्रकट कर देता है कि कौन किस का प्रिय है - इसमें कहने की आवश्यकता नहीं है । घर का आँगन ही भीतर की समृद्धि बता देता है ॥ १ ॥ ४०४. अरी माँ, जिन्होंने प्रौढ़ महिलाओं (विदग्ध स्त्रियों) के साथ रमण किया है, उनके शरीर में केवल जीव शेष रह जाते हैं । वे जलते हैं, उबलते रहते हैं, आहें भरते रहते हैं और सिमसिमाते रहते हैं ॥ २ ॥ Jain Education International ४०५. उस (प्रेमी) के अंगों को कैसे धारण किया जाता है - यह हमें ज्ञात नहीं है । अरी माँ ! वे तो काँपते हैं, ऐंठते हैं, उच्छ्वासित होते हैं और सिमसिमाने लगते हैं ॥ ३ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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