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*४००.
उस नव नलिन कोमलांगी प्रिया का स्मरण क्यों न किया जाय जो नखों से तनिक भर छूट जाने पर अकाल में ही घना भादों उपस्थित कर देती है (या कृष्ण मेघों के बिना ही रो-रो कर भादों कर डालती है) ॥ ३ ॥
वज्जालग्ग
४०१. जो गृह-द्वार के तोरण यूथ-भ्रष्ट हरिणी के समान मार्ग रहे ? ॥ ४ ॥
(द्वार का अंग विशेष ) पर बैठी निहारती रहती है, वह कैसे याद न
* ४०२ निःश्वासों से शरीर सुखा देने पर भी जो आशावती है, उसका स्मरण क्यों न किया जाय। जब तक साँसें तब तक आश्वासन दिया जाता है ।। ५॥
समाप्त नहीं हो जाती
४२ - पियाणुरायवज्जा ( प्रियानुराग-पद्धति)
४०३. मुख का रंग ही प्रकट कर देता है कि कौन किस का प्रिय है - इसमें कहने की आवश्यकता नहीं है । घर का आँगन ही भीतर की समृद्धि बता देता है ॥ १ ॥
४०४. अरी माँ, जिन्होंने प्रौढ़ महिलाओं (विदग्ध स्त्रियों) के साथ रमण किया है, उनके शरीर में केवल जीव शेष रह जाते हैं । वे जलते हैं, उबलते रहते हैं, आहें भरते रहते हैं और सिमसिमाते रहते हैं ॥ २ ॥
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४०५. उस (प्रेमी) के अंगों को कैसे धारण किया जाता है - यह हमें ज्ञात नहीं है । अरी माँ ! वे तो काँपते हैं, ऐंठते हैं, उच्छ्वासित होते हैं और सिमसिमाने लगते हैं ॥ ३ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य
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