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________________ वज्लालग्ग १३३ ३८८. अरे शम्भु को लोचनाग्नि से बचे मदन ! अपना जीव लेकर भाग जा। अन्यथा प्रिय के विरहानल की लपटों में सहसा भस्म हो जायगा ॥ १५ ॥ ३८९. जिन्होंने सौभाग्य-निधि (प्रियतम) को देखा है, वे आँखें भले रोवें, परन्तु जिन्हें कभी उनका संगम नहीं प्राप्त हो सका है, वे अंग क्यों क्षीण होते जा रहे हैं ?' ॥ १६ ॥ ४०–अणंग-वज्जा (अनंग-पद्धति) ३९०. सखि ! इस निगोड़ी मदनाग्नि का कुछ अन्य ही स्वभाव है, नीरसों के हृदय में बुझतो है और सरसों के हृदय में प्रज्ज्वलित हो जाती है ॥ १॥ ३९१. दृष्टि, दृष्टि का प्रसार, दृष्टि प्रसार से रति, रति से सद्भाव और सद्भाव से प्रेम-ये पाँचों काम के बाण हैं ॥२॥ __ ३९२. अरे नृशंस काम ! तुमने मेरे ही ऊपर पाँचों बाण छोड़ दिये। क्या अन्य तरुणियों को धनुर्दण्ड से मारोगे ? ॥ ३ ॥ ३९३. जिनके हृदय में कामवासना उत्पन्न होते ही जान-बूझ कर दबा दी जाती है, उन कुलबालिकाओं का कामदेव क्या कर सकता ? बेचारा पंजर-गत सिंह के समान अपने शरीर में क्षीण हो जाता है ॥ ४॥ १. वह पोकर रूप छटा प्रिय की जो अघाते नहीं थे कभी पहले। अब रोते हुए इन लोचनों को यह दारुण पीर भले ही खले । जिन्हें अवसर संगम का न मिला जो अभागे कभी हैं लगे न गले। सखि ! वे चिरवंचित कोमल अंग वियोग में हो रहे क्यों दुबले ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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