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________________ १३१ ३८२. आज अवधि पूर्ण हो गई, प्रयत्न पूर्वक मुख का श्रृंगार करो । आज प्रिय के आने और न आने पर भी विरह समाप्त हो रहा है' ॥ ९ ॥ ३८३. क्षण भर में ज्वर, स्वेद, शीत और रोमांच हो जाता है । अरे प्रिय का विरह सन्निपात के समान असह्य है ॥ १० ॥ वज्जालग्ग ३८४. जो उत्कण्ठा उत्पन्न करने वाले हैं, जो दुष्प्रेक्ष्य, निरालोक (प्रकाश-शून्य या निराशा-पूर्ण) हैं, वे उष्ण, असह्य और दुर्गम दिन प्रिय के विरह में सौ वर्ष से लगते हैं ॥ ११ ॥ ३८५. सखि ! काम-रूपो वायु से प्रेरित, स्नेह-रूपी ईंधन से उद्दीपित और असह्य हो जाने वाला विरह ही वास्तविक अग्नि है, बेचारी अग्नि तो नाम से ही अग्नि है ॥ १२ ॥ ३८६. सखि ! विधाता ने इस हताश विरह को अपूर्व अग्नि बना दिया है, यह तो प्रिय के अभाव में स्थूल अश्रु-जल से ( बड़े-बड़े अश्रु बिन्दुओं से ) सिक्त होने पर भी हृदय में प्रज्ज्वलित हो उठता है ॥ १३ ॥ ३८७. विषधर सर्पों की विषाग्नि के संसर्ग से दूषित शरीर वाला चन्दन यदि जलाता है, तो जलाये । प्रिय के वियोग में अमृतमय चन्द्र भी जलाता है - यह आश्चर्य है ॥ १४ ॥ १. बीत चुके दिन पूरे प्रवास के होगो अवश्य हो शीतल छाती । आयेंगे वे यदि गेह नहीं तब भी सखि ! क्यों इतना पछताती ? वेणी नहीं क्यों सजा रही फूल से क्यों न सुहाग का बिन्दु बनाती ? अन्त है आज हो सारे वियोग का प्रीति अहा ! मन में न समाती ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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