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________________ वज्जालग्ग *३३४. जैसे दाडिम-फल (अनार) जब पन्द्रह दिनों का होता है, तब उसका स्वाद कसैला रहता है। जब तक बीज नहीं लाल हो जाता, तब तक क्या उसमें माधुर्यं आता है ? उसी प्रकार जब प्रेम एक पक्षीय होता है तब कटु होता है। जब तक दूसरा प्रेमी अनुरक्त नहीं हो जाता, तब तक क्या उसमें आनन्द आता है ? ॥ ६ ॥ ३३५. भोजन के कौरों में सौ पल (पल = चार तोले) विष खा जाने पर भी वह उस प्रकार नहीं मारता, जिस प्रकार आँखों के अनुराग में रँगी शृंगारिक चेष्टाओं से युक्त प्रेम ।। ७ ॥ ३३६. अहो ! मैं तो अपने हृदय से दूसरों के हृदय को समझती हूँ। ईश्वर करे, कोई कहीं भी अनुराग न करे । प्रेम का निर्वाह बड़े क्लेश से होता है ॥ ८॥ ३३७. नाथ ! न देखने पर उत्कंठा, देखने पर ईर्ष्या और विडंबना उत्पन्न होती है। प्रेम सीधा नहीं, शुकचंचु के समान वक्र है ॥९॥ ३३८. न देखने पर उत्सुकता, देखने पर ईर्ष्या, सुख में स्थित होने पर मान और दूर चले जाने पर दुःख होता है। प्रिय जनों से सुख कहाँ' ? ॥ १० ॥ ३३९. तभी तक सुख रहता है, जब तक किसी से प्रेम नहीं किया जाता । जिसने प्रेमी का साथ किया, उसने सैकड़ों दुःखों में अपने को डाल दिया ॥ ११ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । १. देखने से बढ़ जाती है डाह न देखने से फिर प्यास धनी । दूर दृगों से कहीं बसते तब सूनी मुझे लगती अवनी । रीझते वे जो प्रसन्न कभी तब मान में बीतती है रजनी । कौन भला सुख है प्रिय से यह तू ही बता दे अरी सजनी ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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