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________________ वज्जालग्ग ११३ *३२८. सुरत के अन्त में वधू का नूपुर-युक्त अर्थोत्क्षिप्त चरण ऐसा लगता है, मानों उसने पति-रूपी कामदेव को जीतकर ध्वजा फहरा दी है ॥ १०॥ ३६-पेम्म-वज्जा (प्रेम-पद्धति) ३२९. प्रेम विष्णु भगवान् के समान है। वह अनादि है और परमार्थ (कामोपभोग) का प्रकाशक है (विष्णु भी अनादि है और परमार्थ = मोक्ष या ज्ञान के प्रकाशक हैं)। उसके बहुत से (संयोग-वियोगदि) भेद हैं-(विष्णु के भी राम, कृष्णादि बहुत से भेद हैं)। और वह मोह एवं अनुराग उत्पन्न करता है (विष्णु भी मोह (माया) में अनुराग उत्पन्न करते हैं अर्थात् मायावी हैं) अहो ! क्या हम उसे प्रणाम कर लें ? ॥ १॥ ३३०. आलाप, वक्रोक्ति, संसर्ग और औत्सुक्य-इन सोपानों के समान प्रिय के गुणों से प्रेम ऊपर चढ़ता है ॥२॥ ३३१. जिसका आरम्भ हो ऐसा है कि दीर्घ श्वास लेने पर निकटवर्ती लोगों के शरीर शुष्क हो जाते हैं, उस प्रेम का अन्त कैसा होगा-नहीं जानते ।। ३॥ ३३२. जो मनुष्य न कुछ देता है, न चाटुकारिता करता है और न मन की बातें ही कहता है, वह दर्शनमात्र से ही अमृत के समान मधुर लगता है ॥ ४॥ . ३३३. जहां जागरण नहीं है, जहां ईर्ष्या, खेद एवं मान नहीं हैं और जहां सच्ची चाटुकारिता नहीं है, वहां प्रेम नहीं है ॥ ५ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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