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वज्जालग्ग
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३०४. जो दग्ध-कंचन-कलश के समान हैं (चूचुकों की श्यामता के कारण) वे सम, उन्नत और विशाल स्तन कामदेव की निधि के समान पुण्यहीनों को कठिनाई से दिखाई देते हैं ।। ४ ।।
३०५. जो सुपक मातुलिंग (बिजौरा नोबू) के समान वर्तुल हैं, जो विद्युत के समान उज्ज्वल हैं, वे उन्नत, कठिन और सटे हुये दोनों स्तन, ऊँचे मेघों से परिपूर्ण, मातुलिंग के समान रंग वाले, बिजली से समुज्ज्वल और वर्षा ऋतु से विभूषित आकाश के समान मार डालते हैं ।। ५ ॥
३०६. बाला के उन्नत उरोजों पर लहराता हार ऐसा लगता है, जैसे हिमाद्रि के शिखर से स्खलित गंगा-प्रवाह ॥ ६॥
___ ३०७. पीनोन्नत उरोजों में मार्ग न पाने वाला हार ऐसे शोभित हो रहा है, जैसे यमुना नदी में फेनपुंज ।। ७ ।।
३०८. नीली कंचकी में न समाने के कारण बाहर निकला हुआ युवती का स्तन-पट्ट यो लगता है, जैसे सजल मेघों के अन्तराल से थोड़ा सा झाँकता चन्द्रबिम्ब ८॥
*३०९. जैसे मद (मदिरा) अमत (अनिष्ट या असम्मत) है वैसे ही ये भी अमय (दोषरहित) हैं, जैसे चन्द्रमा समग (मगसहित) है वैसे ही ये भी समद (कस्तूरी लिप्त) हैं, जैसे ऐरावत का कुभ विस्तृत है वैसे ही ये भी विस्तृत हैं। हे हरिणलोचने (या पसर-भर की आँखों वाली) ! जैसे कृपण अभ्यर्थना (याचना) करने पर मुँह फेर लेते हैं वैसे ही तेरे पयोधर भी अभ्यर्थना-विमुख हैं (किसी की अभ्यर्थना करने पर चुप रह जाते हैं) ॥ ९ ॥
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* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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