________________
वज्जालग्ग
२६८. जिस का जन्म रत्नाकर में हुआ है, जो शिव के मस्तक का तिलक है, और जिसकी बहन लक्ष्मी है, उस चन्द्रमा की भी कलाएँ क्षीण हो जाती हैं और वह भी दुर्दशा को प्राप्त हो जाता है।
२६९. विधि का विधान कौन रोक सकता है ? चन्द्रमा ने शिव के शिर पर शरण ली और उनकी जटाओं में भी जाकर छिपा, तब भी राह उसे निगल ही गया ॥ ६ ॥
३०-छइल्ल-वज्जा (विदग्ध-पद्धति) २७०. अट्टालिकाओं और ऊँचे प्राचीर-शिखरों से नगर नहीं होता । जहाँ विदग्ध-जन निवास करता है, वह गाँव भी नगर बन जाता है ।। १॥
२७१.. सुन्दरि ! जो ललिताक्षर काव्यों की रचना में पटु और वक्रोक्ति के अभिज्ञ हैं, वे विदग्ध जहाँ निवास करते हैं, वह नगर है, ग्राम नहीं ॥२॥
२७२. जो संभाषण करना जानता है और कही हुई बात का मर्म तुरन्त समझ जाता है, उसके रहने से नगर को कौन कहे, देश पवित्र हो जाता है ।। ३॥
२७३. चतुरजन विपुल-वैभव-द्वारा ऊपर उठने पर भी, आपत्ति में पड़ने पर भी, आतुर-चित्त होने पर भी और स्वप्न में अवस्थित रहने पर भी अपना कार्य शिथिल नहीं करते ॥ ४ ॥
श्री पटवर्धन ने ढंक को ढिंक का मूल समझ कर उसका अर्थ कौआ लिखा होगा । वस्तुतः ढंक से लिंक का बनना उतना स्वाभाविक नहीं है, जितना ढेकी से। स्त्रीलिंग ढेंको का आद्यस्वर ह्रस्व होने पर उसका रूप ढिकी हो जायगा जिसका पुंल्लिग रूप होगा ढिंक । इसका अर्थ बगुला या वक है। वक जलचर विहंग है। काव्यों में हंसों के प्रतिपक्षी के रूप में सर्वत्र उसी का वर्णन आता है। अतः यही अर्थ उपयुक्त है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org