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वज्जालग्ग
८१ २३२. मालती ने शरद् में अपने फूलों से वन को कुछ ऐसा महका दिया कि कहीं भी इधर-उधर बड़ी कठिनाई से भँवरे दिखाई देते हैं (अर्थात् सभी भ्रमर मालती लताओं पर ही आ गये) ॥ ६ ।।
२३३. शेष पुष्प-जातियों की मालती से क्या स्पर्धा, जिसकी गन्ध से लिप्त भँवरों को भँवरे ही पी डालते हैं ।। ७ ॥
२३४. मालती ने कलिका के व्याज (माध्यम) से अंगुली उठा कर सुगन्ध की भाषा में यों कहा-इधर आता हुआ जो भ्रमर-कुमार समर्थ हो, वह मेरे ऊपर अधिकार करे ॥ ८ ॥
२३५. देखो, पक्षियों के पंखों का आघात, (चुनने वालों के) नाखूनों और (मालाकार की) सूईयों के घाव तथा भ्रमरों का भार थरथराती हुई दुबली-पतली मालती ही सह पाती है ॥ ९ ॥
२६--इंदिदिर-वज्जा (इन्दिन्दिर-पद्धति) २३६. इन्दिन्दिर ! षट्पद ! भ्रमर ! तुम सम्पूर्ण कानन में भ्रमण कर चुके हो। यदि मालती के समान कोई पुष्प देखा हो, तो क्यों नहीं बताते ? (कहते) ॥ १॥
२३७. भ्रमर ! कहीं पंखड़ियाँ हैं, तो गन्ध नहीं और कहीं गन्ध है, तो प्रचुर मकरन्द नहीं। एक पुष्प में दो-तीन गुण नहीं पाये जाते ॥ २ ॥
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