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वज्जालग्ग
७९ २२६. अरे करभ ! अन्य कृशकाय करभों को यह वेलि भी नहीं मिल सकी। तुम्हारा यह आग्रह कैसा कि (आज उसे पाकर भी) विन्ध्य की ऊँची चोटियों को चिन्ता (ध्यान) कर रहे हो।। ७ ।।
२५-मालई-वज्जा (मालती-पद्धति) २२७. हे मालती ! तुम्हारा मकरन्द महीमण्डल में वन्दनीय है। तुम्हारे विरह में क्षीण भ्रमर-कुल बिल्कुल मच्छरों का समूह बन गया
२२८. हे मालतो-कलिके! तुम भरे हुए मकरन्द को महक फैला रही हो, वृद्धि को प्राप्त होओ, (ताकि) भंवरे अन्य पुष्पों की सेवा के कष्ट से मुक्त हो जायें ॥२॥
२२९. (चाहे) महकने वाले पुष्पों की शेष जातियां खिला करें। (किन्तु) भ्रमर की उत्कण्ठा का कारण तो एकमात्र मालती ही है ॥ ३ ॥
२३०. अरे मधुकर ! नन्हीं सो मालती-कलिका को देख कर फिरे क्यों जा रहे हो ? यहां से वह सुगन्ध फैलती है, जो सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो जाती है ॥ ४॥
२३१. अरे मधुकर ! यदि मालती की आकृति नन्ही-सी है और उसकी पंखड़ियां भी पतली हैं तो उस से क्या ? इस का महत्त्व सुगन्ध से समझोगे ॥ ५॥
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