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वज्जालग्ग
६७ १९२. हे करिनाथ ! तृणों का कौर उठा लो और चन्दन-पल्लवों की याद भूल जाओ। जो दशा जिस रूप में परिणत होती है, धीर पुरुष उस दशा को उसी रूप में स्वीकार करते हैं ॥ ३ ॥
१९३. मूढ गजेन्द्र ! करिणी (हथिनो) के वियोग में अनुदिन क्षीण मत होते जाओ। इस संसार में किसी का भी सौख्य निरन्तर नहीं रहता ।। ४ ॥
१९४. विन्ध्य पर्वत पर पत्नी और पुत्र के विरह से संतप्त होने वाले गजराज को सल्लकी के वे सरस पल्लव विष के कौर के समान लगते
१९५. तीव्र-क्षुधा से आकुल गजेन्द्र को प्यारी करिणी से प्राप्त सुखों की स्मृति आते ही मृणाल का सरस कौर सूंड पर ही नष्ट हो गया ॥६॥
१९६. बहुत दिनों की सुखमय लीलाओं को स्मरण कर गजेन्द्र ने ऐसी लम्बी साँस ली कि सूंड पर लिया हुआ हरे तृणों का कौर तुरन्त जल कर भस्म हो गया ।। ७ ॥
१९७. हे गजेन्द्र ! विरह-दग्ध हो कर सम्पूर्ण वनराजि को मत तोड़ डालो। विन्ध्य पर्वत को भो उखाड़ डालने पर विरह-दशा वैसी ही रहेगी ॥ ८॥
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