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________________ वज्जालग्ग १६८. (रणांगण में मृतप्राय पड़ा वीर कहता है) अब भी प्रभु (राजा) संकट-ग्रस्त हैं, अब भी सुभट-समूह प्रहार कर रहे हैं, अब भी विजयलक्ष्मी मध्यस्थ है, तो हे मेरे जीव ! तुम भी अभी प्रस्थान मत करो ॥ ७॥ १६९. प्रबल प्रतिपक्षियों के प्रतिरोध के कारण स्वामी का कार्य अपूर्ण रह जाने पर वीर स्वर्ग नहीं जाना चाहता है। जब सुर-बालाएँ उसे ले जाने लगती हैं, तो क्रुद्ध हो जाता है ॥ ८ ॥ १७०. जननि ! अपने उदर में वंश को विभूषित करने वाले किसी ऐसे वीर को धारण करना-जो शत्रुओं की गजघटाओं के सम्मुख हो और परकलत्रों (पर स्त्रियों) के विमुख ॥९॥ __ १७१. जिसके भुजदण्ड वैरियों के दुर्निवार्य वारणों (हाथियों) का निवारण करने वाले हैं, उसे ही विकट गति से चलना चाहिये और उसे ही स्वामी की कृपा प्राप्त होनी चाहिये ॥ १० ॥ १७२. वीर ने एक पद तो गजराज के दाँत पर रख दिया और दूसरा कुंभस्थल पर । तीसरे पद के लिए स्थान न पाने पर उसकी वही शोभा हुई जो बलिको बाँधते समय विष्णु की हुई थी ॥ ११ ॥ १७३. अहा ! वह वीर स्वामी का कार्य समाप्त कर गजदन्त के पर्यंक पर निश्चिन्त सो गया है। गजराज अपने चंचल-कर्णों से उसके ऊपर चंवर डुला रहा है ।। १२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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