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________________ वज्जालग्ग ५७ १७--सुहड-वज्जा (सुभट-पद्धति) १६२. *जब रणभूमि में विपक्ष-प्रहारों से परवश और मूच्छित-प्राय हो जाने पर भी सुभटगण एक डग आगे ही रहते हैं, तब हम यह नहीं समझ पाते कि प्रेम और दूध में कौन बड़ा है ।। १॥ १६३. जब बल टूट जाता है, सेना पराङ्मुख हो जाती है और स्वामी भी उत्साह खो बैठता है उस समय भी अपनी भुजाओं का शौर्य और बल ही जिनका धन है, वे कुलीन सुभट (युद्ध में) स्थिर होकर खड़े रहते हैं ॥२॥ १६४. मनस्वियों के समूहों का धन नष्ट होता है, मान नहीं; अंग क्षीण होते हैं, प्रताप नहीं; रूप चला जाता है, परन्तु उत्साह (या स्फूर्ति) स्वप्न में भी नहीं जाता ॥ ३ ॥ १६५. कोई निर्भय वीर संग्राम में इस प्रकार प्रहार कर रहा है मानों अपमानित हो गया है, मानों सम्मानित हुआ है, मानों नया सेवक है, मानों कुपित हो गया है और मानों उस से कोई अपराध हो गया है ॥ ४॥ ( उपर्युक्त सभी अवस्थाओं में उत्साहातिरेक संभव है ) १६६. किसी वीर का उदर कृपाण के प्रहार से विदीर्ण हो गया और आंतें निकल कर पैरों पर गिर पड़ी तथापि वह यश-कामी (यद्ध में) ऐसे विचर रहा है जैसे शृंखला-सहित मत्तगजराज ॥ ५ ॥ १६७. जिसके चरण आँतों से आवेष्टित हो चुके हैं, वह वीर दाहिने हाथ में कृपाण और बायें हाथ में कट कर गिरते हुए मस्तक को लेकर एक-एक पर आक्रमण करता जा रहा है ॥ ६ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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