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वज्जालग्ग
१५६. भूमण्डल के वृक्षों में उस पनस (कटहल) के समान कौन है जो याचकों को करिकुम्भ के समान बड़े-बड़े फल प्रदान करता है ॥६॥
१५७. जलधर ! तुम बरसोगे और सम्पूर्ण भुवनान्तर (संसार) को जल से परिपूर्ण भी कर दोगे परन्तु कब? जब तृष्णा (तृषा) से शुष्कशरीर वाले चातकों के परिवार मर जायँगे ॥ ७ ॥
१५८. 'दे दो' यह बात किसी से क्यों कही जाय । यह तो सत्पुरुषों के व्यवहार से बाहर है। मैं विनय-पूर्वक सेवा करता हूँ-संसार में यही मेरी प्रार्थना है (अर्थात् सेवा करना ही मेरी याचना है, मुंह से कुछ माँगना व्यर्थ है)
१५९. *गजेन्द्र के कृष्ण दन्त जो खाने का कार्य करते हैं वे भीतर रहते हैं। जो विपत्तियों में सहायक बनते हैं वे शुभदन्त बाहर ही पड़े रहते हैं ॥९॥
१६०. यदि पोन स्तनों वाली तीन गायें, चार समर्थ बैल और रालक धान्य की मंजरियाँ निष्पन्न हैं तो सेवा (भृत्य-वृत्ति) सुखी हो (अर्थात् सेवा से प्रयोजन नहीं है, उसे दूर से हो आशीर्वाद है) ॥ १० ॥
१६१. हे नरनाथ ! मठ, देवमन्दिर और चत्वर-ये सभी सुधालिप्त (छुहिय) होने पर शोभित होते हैं, परन्तु मेरा कुटुम्ब क्षुधा (सुधा - छुहा) से पीड़ित (छुहिय = क्षुभित) होने पर दुर्बल हो रहा है ॥ ११ ॥
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* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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