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________________ वज्जालग्ग १३२. रत्नाकर का मन्थन होने पर देवों को अमृत मिला, विष्णु को लक्ष्मी मिली और शिव के भाग में विष आया । जो विधिविहित होता है, वही मिलता है ॥ ७ ॥ ४७ १३ -- दीण - वज्जा ( दीन-पद्धति) १३३. हे जननि ! ऐसे पुत्र को जन्म मत देना जो दूसरे से याचना करने में प्रवृत्त हो । जिसने याचना करने पर याचक को निराश कर दिया है, उसे तो गर्भ में भी न धारण करना ॥ १ ॥ १३४. तभी तक गुण है और तभी तक लज्जा, तभी तक सत्य एवं कुल-क्रम है और तभी तक अभिमान, जब तक 'दे दो' यह न कहिये ॥ २ ॥ १३५. दैव ने जगत् में दरिद्र को तृण और तूल ( रूई) से भी लघु ( हल्का ) बनाया है । तो फिर उसे हवा क्यों न उड़ा ले गई ? इस भय से कि कहीं मुझ से भी न कुछ माँग ले ' ॥ ३ ॥ १३६— केवल 'दे दो' यह कहने के लिये उद्यत होते ही हृदय थर्रा जाता है, कंठगत जिल्ह्वा काँपने लगती है और मुख का लावण्य नष्ट हो जाता है ॥ ४ ॥ १३७. जब मेघ प्रयत्न पूर्वक समुद्र से जल लेने लगते हैं तब श्यामल हो जाते हैं । जब देने लगते हैं (बरसने लगते है) तब उज्ज्वल हो जाते हैं । देने वाले और लेने वाले का अन्तर देख लो ॥ ५ ॥ १. Jain Education International लघु है तृण भूतल में जितना यह जानते हैं सब लोग भले | लघु कास का फूल है, तूल भी है, लघु धूल भी है पड़ी पाँव तले । सबसे लघु किन्तु दरिद्र ही है, लघुता जिसे डाह से देख जले | उड़ा ले गई क्यों न हवा उसको, भय था कि कहीं कुछ मांग न ले ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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