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________________ वज्जालग्ग १२-विहि-वज्जा (विधि-पद्धति) १२६. विधि के द्वारा चन्द्रमा भी खंडित होता है और सूर्य का भी अस्तमन होता है। हाय, भाग्य की परिणति से काल किसे नहीं खा जाता ॥१॥ १२७. *यहाँ कौन सदा सुखी है और लक्ष्मी भी किसे सदैव प्रेम प्रदान करती है ? किसका स्खलन नहीं होता है ? विधि ने किसे नहीं खंडित किया ? ॥२॥ १२८. विधिवश परिणत होने वाले कार्यों को ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी नहीं जानते। उन्नत भी नीच और नोच भी क्षण भर में उन्नत हो जाते हैं ।। ३॥ १२९. भाग्य से विधि ने जो भी ललाट पर लिख दिया, उसे पश्चात् प्रसन्न होने पर वह भी अन्यथा करने में समर्थ नहीं है ॥ ४॥ १३०. साहस से भारी उद्योग करने वाला बेचारा पुरुष भी क्या करता है ? उसके प्रताप को विपरीत-रूप-धारी विधि भग्न कर देता १३१. पूर्वकृतकर्म का जो परिणाम होता है उसे देखिये-शिव और विष्णु, दोनों सागर-मन्थन में आरम्भ से ही उपस्थित थे। शिव को विष मिला और विष्णु को पीन पयोधरा लक्ष्मी' ॥६॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । मैंने वज्जालग्ग की गाथाओं के भावों को लेकर कतिपय सवैये लिखे हैं। पाठकों के मनोरंजन के लिये अनुवाद के साथ उन्हें भी दे रहा हूँदोनों ने सागर मन्थन में श्रम एक ही साथ समान लगाया । देखिये किन्तु पुराकृत कर्म का क्या फल दोनों के सामने आया । हाथ लगी हरि के कमला जिसकी छवि देख मयंक लजाया । पीने को भोले महेश ने अन्त में हाय दुरन्त हलाहल पाया ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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