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है। आज जब प्राकृत भाषा के विद्वान् अल्प से अल्पतम होते जा रहे हैं, तब पं० विश्वनाथ पाठक जैसे प्राकृत भाषा में गहरी पैठ रखने वाले विद्वान् को पाकर निश्चय ही हम एक सन्तोष का अनुभव कर रहे हैं। प्राकृत में उनकी गति क्या है, इसका प्रभाव तो स्वयं उनका अनुवाद ही है। उन्होंने पूर्व के टीकाकारों और अनुवादकों द्वारा अस्पष्ट और अव्याख्यात गाथाओं का संगतिपूर्ण अर्थ देकर अपने प्राकृत ज्ञान-गाम्भीर्य को प्रकट कर दिया है। प्रकाशन को इस वेला में हम उनका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। यदि उनका यह श्रम हमारे साथ न होता तो आज यह ग्रन्थ आप सब के हाथों में नहीं पहुंच पाता।
हम प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी के मन्त्री पं० दलसुख भाई मालवणिया के अत्यन्त आभारी हैं, जिन्होंने मूल गाथाओं और उनकी संस्कृत छाया को अंग्रेजी संस्करण से यथावत् लेने की अनुमति प्रदान की। पं विश्वनाथ पाठक को जहाँ पूर्व संस्करण की संस्कृत छाया में त्रुटियाँ परिलक्षित हुईं, उन्हें हमने परिशिष्ट (ख) में स्थान दिया है। मूल भाग में प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी के संस्करण के अनुसार ही गाथा और उसकी छाया को रखा गया है।
इस ग्रन्थ के प्रकाशन एवं मुद्रण के कार्यों में डा० रविशंकर मिश्र एवं डा० अरुणप्रताप सिंह आदि का जो सहयोग मिला है, उसके लिए भी हम आभारी हैं।
अन्त में हम रत्ना प्रिंटिंग वर्क्स के संचालकों के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं, जिन्होंने इस ग्रन्थ के सुन्दर एवं कलापूर्ण मुद्रण में हमें सहयोग दिया है। भूपेन्द्रनाथ जैन
डा० सागरमल जैन मन्त्री
निदेशक सोहनलाल जेन विद्या प्रसारक समिति,
पा० वि० शोधसंस्थान फरीदाबाद
वाराणसी
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