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________________ ( ग ) लग्ग की गाथाएँ मनुष्य को एक जीवनदृष्टि प्रदान करती हैं। यह ठीक है कि उसमें काम-सम्बन्धी गाथाओं का भी संकलन है, किन्तु काम भी मानव-जीवन का एक अंग है। वस्तुतः वह हमारे जीवन के अन्तरंग में बैठा है और उसे जीवन से नकारा नहीं जा सकता है। यह ठीक है कि उसका परिशोधन और परिष्कार सम्भव है और हम यह भी देखते हैं कि वज्जालग्ग के रचयिता ने अनेक प्रसंगों में मनुष्य की काम-वृत्ति के परिष्कार का निर्देश दिया है । वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद और गाथाओं के स्पष्टीकरण में श्री विश्वनाथ पाठक ने जो परिश्रम किया था, उसे विद्वज्जन के सामने लाना हमें अनिवार्य लग रहा था और इसीलिए हमने भावी आलोचनाओं की चिन्ता न कर इसे प्रकाशित करने का साहस किया। श्री पाठक जी का प्रयत्न इसलिए भी सराहनीय है कि उन्होंने ऐसी अनेक गाथाओं को-जिन्हें संस्कृत टीकाकार रत्नदेव और अंग्रेजी अनुवादक प्रो० एम०वी० पटवर्धन ने अस्पष्ट कहकर छोड़ दिया था-विवेचित करने का प्रयास किया है। उनका श्रम सार्थक होगा, यदि विद्वज्जन उनके इस विवेचन से लाभान्वित होंगे। हम इस प्रकाशन के सन्दर्भ में विद्वज्जनों की प्रतिक्रियाओं से लाभान्वित हों, यही एकमात्र अपेक्षा रखते हैं । वस्तुतः इस ग्रन्थ का प्रकाशन उन लोगों को जो साहित्यिक अभिरुचि रखते हुए भी यह मानकर चलते हैं कि लालित्य और सौंदर्य-बोध केवल संस्कृत भाषा में ही सम्भव है, उन्हें-अपनी दृष्टि को परिवर्तित करने के लिए विवश करेगा। स्वयं ग्रन्थकार की यह सूक्ति कि जिसने अमृतमय प्राकृत काव्य को न पढ़ा है और न सुना है फिर भी रागात्मकता की बात करते हैं, वे लज्जित क्यों नहीं होते-हमें सार्थक लगती है। अब यह प्रकाशन सुधीजनों के हाथों में है और वे ही इसकी उपयोगिता, महत्ता और आवश्यकता के निर्णायक हैं। हमने तो मात्र लेखक, अनुवादक और पाठक के बीच एक माध्यम बनने का कार्य किया है, वह भी कितना उचित या अनुचित है, यह भी निर्णय पाठकों को ही देना है। । प्रस्तुत ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद के लिए श्री पाठकजी ने जो परिश्रम किया है, वह कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है। पं० विश्वनाथ पाठक अपने संकोची स्वभाव के कारण यद्यपि अधिक लोगों के परिचय में नहीं आ सके हैं, परन्तु ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद एवं अर्थ-विश्लेषण से वह छिपी हुयी प्रतिभा प्रकाश में आयेगी-ऐसा हमारा निश्चित विश्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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