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( ख ) ग्रन्थ सर्वप्रथम जर्मन विद्वान् लेबर द्वारा बिन्लोथिका इण्डिका के क्रमांक २२७ पर कलकत्ता से सन् १९४४ में प्रकाशित हुआ था। लेबर के परिचयात्मक निबन्ध में इस ग्रन्थ पर प्रकाश डाला गया और अंग्रेजी में भी अनूदित होकर प्रकाशित हुआ। प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की ओर से सन् १९६९ में प्रो० एम० वी० पटवर्धन के द्वारा यह प्रथम बार अंग्रेजी अनुवाद के साथ छपा। किन्तु आज तक इस सरस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं था। वस्तुतः हमने जो इसके प्रकाशन के लिए संकोचमिश्रित प्रसन्नता का प्रयोग किया, उसका कारण यह है कि इसका हिन्दी अथवा अन्य किसी भारतीय भाषा में प्रकाशन करना बड़े साहस का कार्य था। वस्तुतः जब श्रीविश्वनाथ पाठक ने इसका हिन्दी अनुवाद हमारे समक्ष प्रस्तुत किया तो उसके प्रकाशन के सन्दर्भ में निर्णय लेते समय हमें असमंजस की स्थिति से गुजरना पड़ा। यद्यपि इसके पूर्व उनके वज्जालग्ग की कुछ गाथाओं के हिन्दी विवेचन "श्रमण' में प्रकाशित हो चुके थे। वस्तुतः भारतीय भाषाओं में अनुवाद के सहित इसके प्रकाशन के लिए कोई भी साहस नहीं जुटा रहा था। पं० बेचरदासजी ने इसका गुजराती में अनुवाद भी किया, किन्तु वह भी अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया है। प्राकृत भारती से भी इसकी कुछ चुनी हुई गाथाओं का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो रहा है। किन्तु समग्र वज्जालग्ग को हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित करना एक बहुत बड़े साहस का काम है। हमने यह साहस किया है । हम इस बात का भी पूर्व-अनुमान कर चुके हैं कि इसकी उभय प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं। कुछ लोग इस सन्दर्भ में विद्याश्रम की प्रकाशन-नीति की आलोचना भी कर सकते हैं, किन्तु हमने इस सन्दर्भ में विशुद्ध रूप से एक अकादमीय दृष्टिकोण से सोचा है। प्रथम तो हम यह आवश्यक समझते हैं कि यदि प्राकृत भाषा और उसकी कृतियों की रक्षा करनी है तो हमें ऐसा साहस करना ही होगा। अन्यथा साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अनेक सरस प्राकृत-कृतियों के परिचय से ही विद्वत्समाज वंचित रह जायेगा। वस्तुतः ग्रन्थकार और 'टीकाकार की अव्यक्त प्रेरणा से ही हम यह साहस जुटा पाये हैं, जब एक जैन मुनि इन गाथाओं का संग्रह कर सकता है और दूसरा उस पर वृत्ति भी लिख सकता है तो हम नहीं समझते कि इसका प्रकाशन कर हमने कोई अपराध किया है। पुनः वज्जालग्ग में ऐसा बहुत कुछ है, जो मनुष्य को सम्यक् जीवन जीने की एक कला सिखा सकता है। वस्तुतः वज्जा
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