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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
उनका उनके विषयों से सम्पर्क होना अपरिहार्य है। उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप हमें कुछ तथ्य अनुकूल और कुछ तथ्य प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। अनुकूल के प्रति राग या आसक्ति का जन्म होता है और प्रतिकूल के प्रति घृणा या द्वेष का। इस प्रकार राग और द्वेष की उपस्थिति में हमारी चित्तवृत्ति का समत्व भंग हो जाता है। समत्वयोग की साधना का अर्थ अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्तवृत्ति को सम रखना है। सम्यग्दृष्टि आत्मा वही कही जाती है जो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित नहीं होती।"
शम - शम का अर्थ है प्रशम अथवा क्रूर अनन्तानुबन्धी कषायों का अनुदय - जैसे कहा है कि कर्म प्रवृत्तियों के अशुभ विपाक (कर्मफल) जानकर आत्मा के उपशमभाव को जानकर अपराधी पर भी क्रोध न करना प्रशम है। सुप्रवृत्ति में संलग्न आत्मा स्वयं की मित्र है एवं दुष्प्रवृत्ति में संलग्न स्वयं की आत्मा ही स्वयं की शत्रु है।२२ इस प्रकार विवेकपूर्वक कषायों को उपशान्त करना ही प्रशम है। जैनदर्शन में जिसे सम्यग्दृष्टि कहा गया है, उसे. गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है। गीता में स्थितप्रज्ञ का लक्षण भी यही माना गया है कि जिसे सुख के प्रति स्पृहा अर्थात् सुख की चाहत नहीं होती और जो दुःख में अनुद्विग्न रहता है, उसे ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। ऐसे व्यक्तित्व को ही जैनदर्शन में सम्यग्दृष्टि कहा गया है। सम्यग्दृष्टि वह है जिसकी चित्तवृत्तियाँ अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में समत्वपूर्ण रहें। इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्यग्दृष्टि या समत्वयोगी का मुख्य लक्ष्य समत्व की साधना ही है। समत्व के अभाव में कोई सम्यग्दृष्टि या समत्वयोगी नहीं बन सकता। संवेग - सम्यग्दर्शन का दूसरा अंग संवेग माना गया है। संवेग शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - सम् + वेग। क्रोध, मान,
'लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निन्दापसंसासु, तहा माणावमाणओ ।। ६१ ।।' 'दुःखेष्वनुद्विग्रमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरूच्यते ।। ५६ ।।'
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १६ ।
२२
-गीता अध्याय २।
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