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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ४६ HHA बनती हैं। इसके विपरीत जब यही शक्तियाँ समत्व से युक्त होती हैं, तो हमें स्वभावदशा में ले जाती हैं और परिणामतः मोक्ष का कारण बनती हैं। इसीलिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र जब सम्यक्त्व या समत्व से युक्त होते हैं, तो वे मोक्ष का मार्ग बनते हैं और जब वे समत्व से रहित होते हैं, तो संसार का कारण बनते हैं। इसलिए हमें यह समझ लेना चाहिए कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चारित्र के रूप में जो त्रिविध मोक्षमार्ग कहा गया है, वह वस्तुतः चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक पक्षों को समत्व से योजित करने का एक प्रयास ही है। अतः त्रिविध साधना मार्ग की यह विवेचना वस्तुतः समत्वयोग के ही तीन पक्षों की विवेचना है। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान हमारी ज्ञानात्मक चेतना को समत्व से युक्त बनाता है। वह हमें अनाग्रही सत्य निर्णयों की दिशा में प्रेरित करता है। सम्यग्दर्शन हमें अनुकूल और प्रतिकूल अनुभूतियों में अविचलित रहने या पक्षमोह से ऊपर उठने का संदेश देता है; तो सम्यक-चारित्र इच्छा एवं आकांक्षाजन्य संकल्पों से उठकर आत्मा को निर्विकल्प बनाता है। इस प्रकार यह त्रिविध साधना मार्ग भी वस्तुतः आत्मा के तीन पक्षों को समत्व की दिशा में योजित करने की साधना ही है। आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकुचारित्र की यह साधना किस प्रकार समत्वयोग की साधना है। सम्यग्दर्शन समत्वयोग की आधार भूमि: जैसा हमने पूर्व में निर्देश किया है कि सम्यग्दर्शन की साधना वस्तुतः समत्वयोग की साधना है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन के पांच अंग या लक्षण कहे गये हैं - सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य (आस्था)। इन पांच लक्षणों में प्रथम लक्षण सम या समत्व ही है। यहाँ समत्व का अर्थ चित्तवृत्ति की निराकुलता से है। जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं। योगशास्त्र में भी इन पांच लक्षणों का विवेचन मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जब तक इन्द्रियाँ हैं, तब तक २० 'शम संवेग-निर्वेदाऽनुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पंचभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ।। १५ ।।' -योगशास्त्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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