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________________ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना १८ मिलता है ।" चतुर्विध मोक्षमार्ग के रूप में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप ये चार प्रकार के मुख्य अंग माने गये हैं । इसी प्रकार जैनागमों में पंचविध मोक्षमार्ग का भी उल्लेख मिलता है। पंचविध मोक्षमार्ग के रूप में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार ऐसे पांच आचारों का उल्लेख हुआ है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आगम साहित्य और जैनाचार्यों के ग्रन्थों में मोक्षमार्ग का विवेचन विविध दृष्टियों से विविध रूपों में किया गया है । फिर भी उन सब में सामान्य तत्त्व यह है कि वे कोई भी समत्व के अभाव में मोक्षमार्ग नहीं माने गये हैं। क्योंकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप या पुरुषार्थ कोई भी यदि सम्यक् दिशा में योजित नहीं हो, तो वह मोक्षमार्ग नहीं है। इससे यह फलित होता है कि इन विविध मोक्षमार्गों की साधना के मूल में समत्वयोग की साधना ही मूल आधार है । अतः यहाँ यह समझने की भ्रान्ति नहीं करनी चाहिए कि विविध दृष्टियों से किये गये विविध मोक्षमार्गों का यह विवेचन परस्पर विरोधी है । वस्तुतः ये सभी समत्वयोग की साधना के विविध अंग हैं और इस प्रकार इनके केन्द्र में तो समत्वयोग ही है । ४८ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप में जो त्रिविध मोक्षमार्ग है, वस्तुतः वह समत्वयोग की साधना का ही एक व्यापक रूप है । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हमारी चेतना के तीन पक्ष हैं जानना, अनुभव करना और इच्छा करना । चेतना के इन तीन पक्षों को ही जैनदर्शन में ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है। वस्तुतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये आत्मा से भिन्न नहीं हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इन तीनों को आत्मा ही कहा है, क्योंकि ये आत्मा से अभिन्न हैं । " आत्मा की ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक शक्तियाँ जब मिथ्यात्व या गलत अवधारणाओं से युक्त होती हैं तो वे व्यक्ति को स्वभावदशा से च्युत करके विभावदशा में ले जाती हैं । वही बन्धन का कारण १६ १८ - १६ 'नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । एस मग्गोत्ति पण्णतो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। २ ।।' 'आत्मैव दर्शन - ज्ञान - चारित्राण्यथवा यतेः । यत् तदात्मक एवैष, शरीरमधितिष्ठिति ।। १ ।।' Jain Education International - - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ । - योगशास्त्र ४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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