________________
जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
महावीर ने इनमें से सच्चा साधक उसे ही कहा है, जो ज्ञान और क्रिया तथा श्रुत और शील दोनों से सम्पन्न है। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान और चारित्र की समवेत् साधना से ही दुःख का क्षय होता है। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त हैं और एकान्त दृष्टि जैनदर्शन की विचारणा के अनुसार सम्यक् नहीं है। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है।
वैदिक परम्परा में ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति __ जैन परम्परा के समान वैदिक परम्परा में भी ज्ञान और क्रिया दोनों के समन्वय में ही मुक्ति की सम्भावना मानी गई है। नृसिंहपुराण में भी आवश्यकनियुक्ति के समान सिद्ध किया गया है कि जैसे रथहीन अश्व और अश्वहीन रथ अनुपयोगी है; वैसे ही विद्या विहीन तप और तप विहीन विद्या निरर्थक है। जैसे दो पंखों के कारण पक्षी की गति होती है, वैसे ही ज्ञान और कर्म दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है। क्रियाविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन क्रिया दोनों निरर्थक हैं। बुद्ध ने क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों को ही अपूर्ण माना है। उन्होंने शील और प्रज्ञा - दोनों का समान रूप से महत्त्व स्वीकार किया है। जैन दर्शन का त्रिविध मोक्षमार्ग :
त्रिविध मोक्षमार्ग की चर्चा जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। स्थानांगसूत्र, समवायांग आदि आगमों में त्रिविध मोक्षमार्ग का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में भी इस त्रिविध मोक्षमार्ग की चर्चा की है। इसमें इसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र - ये तीन अंग बताये गये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र और आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में चतुर्विध मोक्षमार्ग का उल्लेख
१५
नृसिंहपुराण ६१/६/११ । 'दी क्वेस्ट ऑफ्टर परफेक्शन' पृ. ६३ । 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ.३३ से उद्धृत 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।'
-तत्त्वार्थसूत्र १/१।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org