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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायू या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुँचा सकता; वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप और संयमरूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती। तैरना जानते हुए भी यदि कोई कायचेष्टा न करे तो डूब जाता है; उसका कार्य सिद्ध नहीं होता। वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह डूब जाता है।" जैसे चन्दन ढोनेवाला चन्दन की सुगन्ध से लाभान्वित नहीं होता; मात्र भारवाहक ही बना रहता है, वैसे ही आचरण से हीन ज्ञानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है। इससे उसे कोई लाभ नहीं होता। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अन्धपंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यक् मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है; वैसे ही आचरण विहीन ज्ञान और ज्ञान विहीन आचरण दोनों निरर्थक हैं - संसार रूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ हैं। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता; अकेला अन्धा, अकेला पंगू इच्छित साध्य तक नहीं पहुँच सकते; वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है। भगवतीसत्र में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने को मिथ्या कहा गया है। 'ज्ञान क्रियाभ्याम मोक्षः' - दोनों के समन्वय से ही मोक्ष की उपलब्धि होती है। महावीर ने ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध की दृष्टि से एक चतुर्भगी का कथन किया है :
१. कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न हैं, लेकिन चारित्र सम्पन्न नहीं हैं; २. कुछ व्यक्ति चारित्र सम्पन्न हैं, लेकिन ज्ञान सम्पन्न नहीं हैं; ३. कुछ व्यक्ति न ज्ञान सम्पन्न हैं, न चारित्र सम्पन्न हैं; और ४. कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न भी हैं और चारित्र सम्पन्न भी हैं।
आवश्यकनियुक्ति ६५-६७ । विशेषावश्यकभाष्य ११५१-५४ । आवश्यकनियुक्ति १०० । आवश्यकनियुक्ति १०१-१०२ । भगवतीसूत्र ८/१०/४१ ।
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