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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
है। वहाँ अनेक उदाहरणों से इस बात को पुष्ट किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी मोक्षमार्ग को ज्ञान और चारित्र के रूप में स्वीकार किया गया है ।
साधनामार्ग में ज्ञान और क्रिया (विहित आचरण) के श्रेष्ठत्व को लेकर विवाद चला आ रहा है। वैदिक युग में जहाँ विहित आचरण की प्रधानता रही है, वहाँ औपनिषदिक युग में ज्ञान पर बल दिया गया । जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही साधना के क्षेत्र में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। महावीर और उनके बाद के जैन विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधनापथ का उपदेश दिया । उनका यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से । ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की समीक्षा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि पाप का त्याग किये बिना ही मात्र यथार्थता को जानकर आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है; कुछ विचारक ऐसा मानते हैं। लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं ।" सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कर्मों के कारण दुःखी ही होगा। आवश्यकनिर्युक्ति में ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन विस्तृत रूप में है । उसके कुछ अंश इस समस्या का हल खोजने में हमारे सहायक हो सकेंगे। निर्युक्तिकार भद्रबाहु कहते हैं कि आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार - समुद्र से पार नहीं होते । बिना आचरण
६ विशेषावश्यकभाष्य २६७५ ।
उत्तराध्ययनसूत्र १७ /२० |
(क) 'इहमेगे उ मन्त्रन्ति, अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ ६ ॥ (ख) भता अकरेन्ता य, बन्धमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेण, समासार्सेति अप्पयं ||१०|| ' सूत्रकृतांगसूत्र २/१/७ ।
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-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ६ ।
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