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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
माया और लोभ रूपी आवेगों का सम होना यही संवेग है। संवेग का अर्थ मोक्ष की अभिलाषा किया गया है। आचार्य रामचन्द्रसूरि लिखते हैं कि दिव्य देवों के सुख भी यथार्थ में सुखाभास हैं - परिणामतः दुःखस्वरूप ही हैं। मोक्ष के स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा रखना संवेग है। उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में कहा गया है कि जीव संवेग से अनुत्तर धर्मश्रद्धा को उपलब्ध करता है तथा मिथ्यात्व से मुक्त होकर यथार्थ दर्शन की उपलब्धि करता है। इस प्रकार दर्शन विशोधि से सम्पन्न जीव अपनी साधना से उसी भव में या तीसरे भव में अवश्य मुक्त होता है। क्रोध, मान, माया और लोभ जिन्हें जैन धर्म में कषाय कहा गया है, वे हमारी चित्तवृत्ति के समत्व को भंग करते हैं। अतः सम्यग्दर्शन की साधना का लक्ष्य यही होता है कि इन आवेगों के प्रसंग उपस्थित होने पर चित्तवृत्ति को उनसे विचलित नहीं होने देना। जिस व्यक्ति के क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी आवेग सम हो गये हैं अर्थात् उन आवेगों के कारण से जिसकी चित्तवृत्ति विचलित नहीं बनती है; वही सम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का संवेग नामक जो दूसरा अंग है। वह भी समत्वयोग की साधना का ही एक रूप है। निर्वेद - सम्यग्दर्शन का तीसरा लक्षण निर्वेद माना गया है। निर्वेद का अर्थ है - अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में चित्तवृत्ति का अप्रभावित रहना। जैसा हम पूर्व में कह चुके हैं कि संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जिसके जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ नहीं आती हों। किन्तु श्रेष्ठ साधक वही कहलाता है, जो इन अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में अप्रभावित रहता है। निर्वेद की साधना वस्तुतः अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्तवृत्तियों को अप्रभावित रखने की साधना है। इस प्रकार निर्वेद भी किसी न किसी रूप में चित्तवृत्ति के समत्व का ही सूचक है। इस प्रकार
'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ।। ३७ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २० । 'सम्यग्दर्शन' पृ. २८४ ।
-रामचन्द्रसूरी।
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