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________________ २८ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना सम्यक्त्व शब्द का अर्थ तत्त्वरुचि या सत्याभिरुचि या सत्याभिप्सा माना गया है।६२ एक अन्य दृष्टि से सम्यक्त्व का अर्थ उचित्तता, न्यायता, निष्पक्षता आदि भी है। इसके विपरीत सम शब्द समत्व या समता का सूचक है। जैन ग्रन्थों में समत्व और सम्यक्त्व समान अर्थों में भी प्रयुक्त हुए हैं। इसका कारण यह है कि समत्व के अभाव में सम्यक्त्व सम्भव नहीं है। जो समत्व से युक्त हो उसे ही सम्यक् कहा जा सकता है। इस प्रकार समत्व और सम्यक्त्व में आधार आधेय सम्बन्ध बनता है। समत्व का अर्थ चित्त के परिणामों का राग-द्वेष से आक्रान्त नहीं होना है। जब चित्त राग-द्वेष से रहित होता है, तभी समत्व प्रतिफलित होता है। जैसा हमने पूर्व में देखा समत्व वीतरागता का परिचायक है। जहाँ राग-द्वेष है वहाँ चित्तवृत्ति में विचलन या तनाव है। अतः राग-द्वेष का अभाव ही समत्व का परिचायक है और जो भी समत्व से युक्त होगा वही सम्यक् कहा जायेगा। सम्यक्त्व होने का अर्थ सत्य या उचित्त होना भी है। किन्तु जो विषम है, वह न तो सत्य हो सकता है और न उचित। इसीलिए हमें यह मानना होगा कि सम्यक्त्व के लिए समत्व आवश्यक है। जब तक चित्तवृत्ति में समत्व नहीं आता तब तक हमारा आचार व विचार सम्यक् नहीं हो सकता। चाहे विचारों के सम्यक्त्व का प्रश्न हो या आचार - दोनों के लिए समत्व आवश्यक है। समत्वपूर्ण विचार ही सम्यक् विचार हैं और समत्वपूर्ण आचार ही सम्यक् आचार है। समत्व के आचार और विचार क्षेत्र में जो अभिव्यक्ति है वही सम्यक्त्व है। इसलिए जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान या सम्यक्-चारित्र की बात कही गई है। वहाँ यह मानना होगा कि जो ज्ञान समत्व से युक्त है, वही सम्यक् आचार है। दूसरे शब्दों में हमारे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का सम्यक् होना इस बात पर निर्भर करता है कि वे समत्व से युक्त हैं या नहीं ? ज्ञान, दर्शन और चारित्र जब समत्व से युक्त होते हैं, तब ही वे सम्यक् होते हैं। जैनदर्शन में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के मिथ्या होने का अर्थ यही है कि वे कही न कहीं राग-द्वेष और तद्जन्य कषायों से युक्त ६२ 'अभिधानराजेन्द्रकोष' खण्ड ५ पृ. २४२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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