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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
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हैं। आत्मा में कषायों की उपस्थिति ही विषमता है और उस विषमता को समत्व की साधना के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। इसीलिए यह कहा गया है कि समत्व की साधना वीतरागता की साधना है और वही सम्पूर्ण साधना की हार्द है।
१.७ समत्व और वीतरागता
जैन आचार्यों की दृष्टि में समत्व और वीतरागता प्रायः पर्यायवाची ही हैं; क्योंकि जहाँ वीतरागता होगी वहीं समत्व होगा
और जहाँ समत्व होगा वहीं वीतरागता होगी। राग-द्वेष की वृत्तियाँ ही हमारी चेतना के समत्व को भंग करती हैं। यह हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि चेतना या आत्मा समत्व रूप है। उसका यह समत्व राग या द्वेष में से किसी भी एक की उपस्थिति में भंग हो जाता है। जिस प्रकार तराजू स्वतः सम रहती है किन्तु उसके एक पलड़े में यदि भार डाल दिया जाय तो उसका दूसरा पलड़ा स्वतः ही ऊपर उठ जाता है और उसका सन्तुलन भंग हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा में जब राग या द्वेष की वृत्ति का उदय होता है तो हमारा चैतसिक समत्व भंग हो जाता है। राग-द्वेष की उपस्थिति में क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों का जन्म होता है और जिसका चित्त कषायों से आक्रान्त हो वह समत्व की साधना में सफल नहीं होता है। जैनदर्शन के गुणस्थान सिद्धान्त में यह बताया गया है कि जब तक व्यक्ति में कषायों की सत्ता बनी हुई है, तब तक वह वीतरागता को उपलब्ध नहीं होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो क्रोधादि कषायों के निमित्त से हमारा चित्त उद्वेलित होता है। चित्त का उद्वेलित होना या उद्विग्न होना विषमता का सूचक है
और इस विषमता का मूल कारण राग-द्वेष जन्य कलुषित वृत्तियाँ हैं। अतः यह स्पष्टतः सिद्ध होता है कि जहाँ रागादि भाव रहे हुए हों, वहाँ चैतसिक समत्व सम्भव नहीं है। वीतरागता या अनासक्त जीवन दृष्टि ही व्यक्ति में समत्व का विकास कर सकती है। अतः समत्वयोग की साधना के लिए वीतरागता की उपासना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि वीतरागता की साधना से ही समत्व की सिद्धि सम्भव है। जब तक चित्त राग-द्वेष आदि कषायों से कलुषित है, तब तक समत्व की अनुभूति सम्भव
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